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"खुद से ही बाजी लगी है / गौतम राजरिशी" के अवतरणों में अंतर

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''{मासिक वर्तमान साहित्य, अगस्त 2009}''</poem>

12:44, 28 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

खुद से ही बाजी लगी है
हाय कैसी जिंदगी है

जब रिवाजें तोड़ता हूँ
घेरे क्यों बेचारगी है

करवटों में बीती रातें
इश्क ने दी पेशगी है

रोया जब तन्हा वो तकिया
रात भर चादर जगी है

अर्थ शब्दों का जो समझो
दोस्ती माने ठगी है

दर-ब-दर भटके हवा क्यूं
मौसमे-आवारगी है

कत्ल कर के मुस्कुराये
क्या कहें क्या सादगी है

{मासिक वर्तमान साहित्य, अगस्त 2009}