खूब पता था वो सागर है खारा पानी है / ललित मोहन त्रिवेदी
खूब पता था वो सागर है खारा पानी है !
फिर भी प्यास बुझाने पहुंचे ये हैरानी है !!
बहुत दूर तक सन्नाटों ने राह नहीं छोड़ी !
लेकिन हमने मीठे सुर की चाह नहीं छोड़ी !!
उधर नियति की और इधर अपनी मनमानी है .............
जीवन भर अपनी शर्तों पर जिसको जीना है !
मीरा या सुकरात हलाहल उसको पीना है !!
सर कटवाकर जीने की हठ हमने ठानी है ................
बहुत कसे तारों को थोड़ा ढीला होना था !
ढीले तारों को थोड़ा ठसकीला होना था !!
सुर के साथ हमेशा हमने की नादानी है ..................
आसमान को छू लेने की आस लगाली है !
हमने बैठे ठाले अपनी प्यास बढ़ाली है !!
छाया को कद समझ लिया है उस पर ज्ञानी है ?..........
अँजुरी भर अनुराग मिला तो आँगन सजा लिया !
चुटकी भर वैराग मिला तो ओढा बिछा लिया !!
माया पूरी की पूरी तो हाथ न आनी है ...................
न तो गोताखोर बने, जल में गहरे उतरे !
फ़िर भी सागर की बातें करने से नहीं डरे !!
अपने साथ सही, लेकिन यह बेईमानी है ...............
दौड़ रहे है लोग भला हम क्यों रह जाए खड़े ?
यही सोचकर, जाने कितने, अंधे, दौड़ पड़े !!
फ़िर इसको विकास कहते है ,अज़ब कहानी है ............