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"खेत में पानी भरो/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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'''खेत में पानी भरो'''
 
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खेत में पानी भरों तुम इस तरह से,
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खेत में पानी भरो तुम इस तरह से,
 
मेड़ का संयम कभी टूटे नहीं।
 
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यक्ष प्रश्नों से घिरी यह जिंन्दगी है
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यक्ष प्रश्नों से घिरी यह जिन्दगी है
 
हर कदम पर जाल हैं फैले हुये,
 
हर कदम पर जाल हैं फैले हुये,
 
डगमगाती नाव जैसा सन्तुलन ले
 
डगमगाती नाव जैसा सन्तुलन ले
 
चल रही कल के सवालों को लिये
 
चल रही कल के सवालों को लिये
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खोल दो तुम उलझनों की पर्त ऐसे,
 
खोल दो तुम उलझनों की पर्त ऐसे,
प््रोम का बन्धन कभी टूटे नहीं।
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नेह का बन्धन कभी टूटे नहीं।
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उठ रहे परिवर्तनों के प्रश्न ऐसे  
 
उठ रहे परिवर्तनों के प्रश्न ऐसे  
 
बादलों के झुन्ड जैसे उठ रहे,
 
बादलों के झुन्ड जैसे उठ रहे,
 
हैं छिपाये ध्वंस के अवशेष मन में  
 
हैं छिपाये ध्वंस के अवशेष मन में  
 
कुछ कहे, पर रह गये कुछ अनकहे,
 
कुछ कहे, पर रह गये कुछ अनकहे,
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अनदिखे पथ, पग धरो तुम आज ऐसे
 
अनदिखे पथ, पग धरो तुम आज ऐसे
 
नेह की गागर कभी फूटे नहीं।
 
नेह की गागर कभी फूटे नहीं।
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हो रहा है लोभ का संचरण इतना  
 
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श्वेत किरणें आज मैली हो गयीं
 
श्वेत किरणें आज मैली हो गयीं
पुत गये हेमाभ चेहरे कालिखेंा से,
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पुत गये हेमाभ चेहरे कालिख से,
चदरें भी रंग खेा मैली हुयी,,
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चदरें भी रंग खे मैली हुयी,,
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नित करो तुम आचरण का वरण ऐसा,  
 
नित करो तुम आचरण का वरण ऐसा,  
 
अब किसी की जिन्दगी लूटे नहीं।
 
अब किसी की जिन्दगी लूटे नहीं।
 
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14:33, 13 मई 2011 का अवतरण

खेत में पानी भरो

खेत में पानी भरो तुम इस तरह से,
मेड़ का संयम कभी टूटे नहीं।

यक्ष प्रश्नों से घिरी यह जिन्दगी है
हर कदम पर जाल हैं फैले हुये,
डगमगाती नाव जैसा सन्तुलन ले
चल रही कल के सवालों को लिये

खोल दो तुम उलझनों की पर्त ऐसे,
नेह का बन्धन कभी टूटे नहीं।

उठ रहे परिवर्तनों के प्रश्न ऐसे
बादलों के झुन्ड जैसे उठ रहे,
हैं छिपाये ध्वंस के अवशेष मन में
कुछ कहे, पर रह गये कुछ अनकहे,

अनदिखे पथ, पग धरो तुम आज ऐसे
नेह की गागर कभी फूटे नहीं।

हो रहा है लोभ का संचरण इतना
श्वेत किरणें आज मैली हो गयीं
पुत गये हेमाभ चेहरे कालिख से,
चदरें भी रंग खे मैली हुयी,,

नित करो तुम आचरण का वरण ऐसा,
अब किसी की जिन्दगी लूटे नहीं।