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"खोया अस्तित्व / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

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पक्षियों के पर रँगीले
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एक बूँद गई खारे सागर में ऐसे
रेशम की बन्धन सजीले
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एक कली सूख जाए बंजर में जैसे
हरीतिमा डाली निराली
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यदि जाती सीपी-मुख में
नव किसलय, अमृत प्याली
+
तो सम्भवतः बदलती मोती में
 +
न जाने क्यों चुना यह विकल्प?
  
रोक लेंगे क्या ये सब मुझे?
+
भाग्य की उससे निर्ममता
 +
या फिर उसकी अपनी ममता
 +
मिट्टी कुम्हार के हाथों बनी मूर्त रूप
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सहते-सहते जीवन की छाँव॥-धूप
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कहाँ खो गया उसका अस्तित्व?
  
स्वप्नों की बारातें प्यारी
+
पूर्णतः विकसित होकर
स्मृतियों की सौगातें न्यारी
+
मृतप्रायः फिर भी जीवित होकर
नीलगिरि की बहती धारा
+
मिट गया उसका नाम कहीं
और भोर का उगता तारा
+
खो गई  पृथक् पहचान कहीं
  
रोक लेंगे क्या ये सब मुझे?
+
कहाँ खो गया उसका पृथक्त्व?
  
पर्वतों के श्वेत सोते
+
सभी जानते हैं उसे किसी अंश-रूप में
प्राची मस्तक उषा अरुण होते
+
माता-सुता-भगिनी-पत्नी-प्रेयसी-नर्तकी
अश्रुओं की प्यारी करुणा
+
कहाँ खो गया उसका नारीत्व?
और ये सारी मृगतृष्णा
+
 
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रोक लेंगे क्या ये सब मुझे?
+
 
+
अभी बीते क्षण में
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और मृदाकण में
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जगी थी एक स्फूर्ति
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सजी थी एक मूर्ति
+
 
+
फिर यह आलस्य कैसा
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मुझे तो चले जाना है
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कहीं दूर… अति दूर…
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ये सब असीम भौतिक सुख-साज
+
 
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रोक लेंगे क्या ये सब मुझे?
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08:56, 14 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण

एक बूँद गई खारे सागर में ऐसे
एक कली सूख जाए बंजर में जैसे
यदि जाती सीपी-मुख में
तो सम्भवतः बदलती मोती में
न जाने क्यों चुना यह विकल्प?

भाग्य की उससे निर्ममता
या फिर उसकी अपनी ममता
मिट्टी कुम्हार के हाथों बनी मूर्त रूप
सहते-सहते जीवन की छाँव॥-धूप
कहाँ खो गया उसका अस्तित्व?

पूर्णतः विकसित होकर
मृतप्रायः फिर भी जीवित होकर
मिट गया उसका नाम कहीं
खो गई पृथक् पहचान कहीं

कहाँ खो गया उसका पृथक्त्व?

सभी जानते हैं उसे किसी अंश-रूप में
माता-सुता-भगिनी-पत्नी-प्रेयसी-नर्तकी
कहाँ खो गया उसका नारीत्व?