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खोया अस्तित्व / कविता भट्ट

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एक बूँद गई खारे सागर में ऐसे
एक कली सूख जाए बंजर में जैसे
यदि जाती सीपी-मुख में
तो सम्भवतः बदलती मोती में
न जाने क्यों चुना यह विकल्प?

भाग्य की उससे निर्ममता
या फिर उसकी अपनी ममता
मिट्टी कुम्हार के हाथों बनी मूर्त रूप
सहते-सहते जीवन की छाँव॥-धूप
कहाँ खो गया उसका अस्तित्व?

पूर्णतः विकसित होकर
मृतप्रायः फिर भी जीवित होकर
मिट गया उसका नाम कहीं
खो गई पृथक् पहचान कहीं

कहाँ खो गया उसका पृथक्त्व?

सभी जानते हैं उसे किसी अंश-रूप में
माता-सुता-भगिनी-पत्नी-प्रेयसी-नर्तकी
कहाँ खो गया उसका नारीत्व?