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Kavita Kosh से
हमने छेड़ा जहाँ से तेरे साज़ को, कोई वैसे न अब इसको छू पायेगा
तेरे होठों होँठों पे लहरा चुके रात भर, सोच क्या अब जियें चाहे मर जायँ हम!
घुप अँधेरा है, सुनसान राहें है ये, कोई आहट कहीं से भी आती नहीं
रात काँटों पे करवट बदलते कटी, हमको दुनिया ने पल भर न खिलने दिया
आयेंगे कल नए नये रंग में फिर गुलाब, आज चरणों पे उनके बिखर जायँ हम
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