भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गगन में बदरा / अवनीश सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Abnish (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:22, 18 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <Po...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़े दिनों के बाद गगन में
आये बदरा छाये

आते ही झट लगा खेलने
सूरज आँख-मिचौनी
घुले-मिले तो ऐसे-जैसे
मिसरी के संग नैनी

बाट जोहते रहे बटोही
धूप-छाँव के साये

हुआ मगन मन गाये कजरी
गाये बारहमासी
लहकी-थिरकी है पुरवइया
देख पक्षाभ-कपासी

औचक-भौचक ढ़ोल-मजीरा
मौसम धूम मचाये

करो हरी तुम कोख धरा की
आओ बदरा बरसो
क्या रक्खा है कल करने में
या करने में परसों

उम्मीदों की फसल उगाओ
हमने दीप जगाये