भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गरीबों के लहू से जो महल अपने बनाता है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:24, 24 फ़रवरी 2024 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यदि इस वीडियो के साथ कोई समस्या है तो
कृपया kavitakosh AT gmail.com पर सूचना दें

ग़रीबों के लहू से जो महल अपने बनाता है।
वही इस देश की मज़लूम जनता का विधाता है।

कहाँ से नफ़रतें आकर घुली हैं उन फ़िजाओं में,
जहाँ पत्थर भी ईश्वर है जहाँ गइया भी माता है।

गरजती है बहुत फिर प्यार की बरसात भी करती,
मेरा बदली के दिल से क्या पता कैसा ये नाता है।

पिघल जाते हैं पत्थर प्यार में कहता है जग सारा,
पिघलते पत्थरों पर क्यूँ जमाना तिलमिलाता है।

न मंदिर में न मस्जिद में न गुरुद्वारे न गिरिजा में,
दिलों में झाँकता है जो ख़ुदा को देख पाता है।

मैं तेरे प्यार का कंबल हमेशा साथ रखता हूँ,
भरोसा क्या है मौसम का बदल क्षण भर में जाता है।