भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गर अपने प्यार का सागर सनम गहरा नहीं होता / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:39, 18 अप्रैल 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गर अपने प्यार का सागर सनम गहरा नहीं होता।
तो पानी आज तक चुपचाप यूँ ठहरा नहीं होता।

महक उठती हवा सारी फ़िजा रंगीन हो जाती,
गुलाबों पर जो काँटों का सदा पहरा नहीं होता।

नदी खुद ही स्वयं को शुद्ध कर लेती अगर पानी,
उन्हीं दो चार बाँधों के यहाँ ठहरा नहीं होता।

कभी तो चीख मजलूमों की उस तक भी पहुँचती गर,
हमारे देश का ये हुक्मराँ बहरा नहीं होता।

न होते हाथ बुनकर के न रँगरेजों के रँग होते,
तो खादी का तिरंगा देश में फहरा नहीं होता।