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गर सारे परिंदों को / कविता किरण

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गर सारे परिंदों को पिंजरों में बसा लोगे
सहरा में समंदर का फ़िर फिर किससे पता लोगे
ये सोच के हम भीगे पहरों तक बारिश में
कब तक मेरे पांवों के कांटे ही निकालोगे
सूरज हो, रहो सूरज,सूरज न रहोगे ग़र गर
सजदे में सितारों के सर अपना झुका लोगे
रूठों को मनाने में है देर लगे कितनी
दिल भी मिल जायेंगे ग़र गर हाथ मिला लोगे
आसां हो जायेगी हर मुश्किल पल-भर में
ग़र गर अपने बुजुर्गों की तुम दिल से दुआ लोगे
</poem>