भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"गलने लगा हिमालय लज्जा से सागर चिंघाड़ रहा / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=गाँधी भारती / गुलाब खंडे…) |
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल | |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल | ||
− | |संग्रह=गाँधी भारती / गुलाब खंडेलवाल | + | |संग्रह=गाँधी-भारती / गुलाब खंडेलवाल |
}} | }} | ||
[[category: कविता]] | [[category: कविता]] |
22:37, 5 जून 2010 का अवतरण
गलने लगा हिमालय लज्जा से सागर चिंघाड़ रहा
चाबुक से आहत मृगेंद्र-सा, पराधीनता का अभिशाप
ढोया था जिस सहनशील धरती ने, अंतर फाड़ रहा
उसका यह विश्वासघात का विष से अधिक भयंकर पाप
आह! तुम्हीं को अंतिम आहुति बनना था इस ज्वाला में
जो खा गयी सहस्रों शिशुओं, कन्याओं, माताओं को,
पुत्र-पुत्रवधुओं को, तरुणों को, तरुणी या बाला में
बिना भेद के, अबलाओं को, बहनों को भ्राताओं को
कहीं जान पाते, स्वतंत्रता! ओ आर्यों की कुलदेवी,
तू इतनी कठोर है, इतनी कष्टमयी है तेरी प्रीति
एक हाथ में अमृत, एक में विष, तेरे प्रिय पद-सेवी
दोनों को चखते हैं, तेरी रही सदा से ही यह रीति --
हम न मचलते राष्ट्रपिता से तुझे बुलाकर लाने को
घर के ही दो टूक कर दिए, मिले पुत्र ही खाने को!