"गले मिले जो आप / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
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+ | फूल खिलाने हम चले,जले देखकर लोग। | ||
+ | मन में जिनके पाप है, उन्हें लगा यह रोग। | ||
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+ | सारे सुख मन -प्राण से , किए तुम्हारे नाम। | ||
+ | फिर भी रुक पाता नहीं, जीवन का संग्राम॥ | ||
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+ | रिश्ते कुहरे हो गए, रस्ते हुए कुरूप। | ||
+ | सर्दी में मिलती नहीं,ज़रा प्यार की धूप।। | ||
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+ | रिश्तों की जंजीर भी,आज बनी अभिशाप। | ||
+ | जो भी जितने पास हैं , देते उतना ताप । | ||
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+ | झोली छोटी दी हमें,जीवन के पल चार । | ||
+ | कहाँ छुपाएँ, साँझ को,अम्बर जैसा प्यार ।। | ||
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+ | अलकों की जंजीर ने,बाँधा लिया हर छोर। | ||
+ | साँसों की खुशबू उड़ी,मन को किया विभोर।। | ||
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+ | भूल न पाए हम कभी, कैसे करते याद । | ||
+ | जब तुम प्राणों में बसे, कौन सुने फ़रियाद॥ | ||
+ | 139 | ||
+ | अपनों ने हम पर किए , सदा पीठ पर वार । | ||
+ | दोष भला देते किसे, हम थे ज़िम्मेदार ।। | ||
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+ | उनको भी अपना कहा, जिनके मन में खोट । | ||
+ | पुर्ज़ा-पुर्ज़ा हम हुए, फिर भी देते चोट ॥ | ||
+ | 141 | ||
+ | घिरा कोहरा है घना , किसने समझे भाव । | ||
+ | आँखें भीगी रात भर , हरे हुए सब घाव ॥ | ||
+ | 142 | ||
+ | जिस दिन पूछा था कभी, किसी दुखी का हाल । | ||
+ | उस दिन तो दिनभर किया , जमकर खूब बवाल ॥ | ||
+ | 143 | ||
+ | मीत वेश में हैं छुपे,दुश्मन चारों ओर। | ||
+ | जिन्दा हैं हम सोचकर, मिल जाएगी भोर ॥ | ||
+ | 144 | ||
+ | भूख , गरीबी , कोहरा , तीनों का है राज। | ||
+ | तन पर कपड़े तक नहीं, निर्दय हुआ समाज॥ | ||
+ | 145 | ||
+ | रोम रोम चन्दन हुआ,'''गले मिले जो आप।''' | ||
+ | पल भर में ही मिट गए,जन्मों के संताप।। | ||
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08:42, 23 जुलाई 2019 के समय का अवतरण
131
कभी न समझे आज तक ,हम विधना का खेल।
दिया बिछौड़ा उस घड़ी,जब होना था मेल।।
132
फूल खिलाने हम चले,जले देखकर लोग।
मन में जिनके पाप है, उन्हें लगा यह रोग।
133
सारे सुख मन -प्राण से , किए तुम्हारे नाम।
फिर भी रुक पाता नहीं, जीवन का संग्राम॥
134
रिश्ते कुहरे हो गए, रस्ते हुए कुरूप।
सर्दी में मिलती नहीं,ज़रा प्यार की धूप।।
135
रिश्तों की जंजीर भी,आज बनी अभिशाप।
जो भी जितने पास हैं , देते उतना ताप ।
136
झोली छोटी दी हमें,जीवन के पल चार ।
कहाँ छुपाएँ, साँझ को,अम्बर जैसा प्यार ।।
137
अलकों की जंजीर ने,बाँधा लिया हर छोर।
साँसों की खुशबू उड़ी,मन को किया विभोर।।
138
भूल न पाए हम कभी, कैसे करते याद ।
जब तुम प्राणों में बसे, कौन सुने फ़रियाद॥
139
अपनों ने हम पर किए , सदा पीठ पर वार ।
दोष भला देते किसे, हम थे ज़िम्मेदार ।।
140
उनको भी अपना कहा, जिनके मन में खोट ।
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा हम हुए, फिर भी देते चोट ॥
141
घिरा कोहरा है घना , किसने समझे भाव ।
आँखें भीगी रात भर , हरे हुए सब घाव ॥
142
जिस दिन पूछा था कभी, किसी दुखी का हाल ।
उस दिन तो दिनभर किया , जमकर खूब बवाल ॥
143
मीत वेश में हैं छुपे,दुश्मन चारों ओर।
जिन्दा हैं हम सोचकर, मिल जाएगी भोर ॥
144
भूख , गरीबी , कोहरा , तीनों का है राज।
तन पर कपड़े तक नहीं, निर्दय हुआ समाज॥
145
रोम रोम चन्दन हुआ,गले मिले जो आप।
पल भर में ही मिट गए,जन्मों के संताप।।