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गाँव की ज़मीन पर / बाल गंगाधर 'बागी'

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अजनबी भी समझेगा, पिछड़ापन असल में
मैं गांव में बसता हूँ, या गांव मेरे दिल में
जहाँ ठाकुर की आवाज़ पर
सारे दलित उनकी खेतों पर
पेट में भूख मनमें दहशत लेकर
पानी का सादा घूंट पीकर
काम करने जाते हैं
नाश्ते में डांट झपट तो
मज़दूरी में लाठियां खाते हैं!

उन्हें बेगार कहें या बेकार
जिनकी काम करती बहू बेटियों को
सवर्ण वहसियों की तरह देखते हैं
जी में जो आया बक देते हैं
कुछ स्वाभिमान दिखाते पर
दो चार हाथ भी कस देेते हैं
जबरन कलाई पकड़ लेते हैं!

कटाई निराई जुताई बुआई
पिटाई सुफाई खुदाई सब कुछ
खेतों से खलिहानों तक
फसलों से दालानों तक
बुआई से कटाई तक
पिटाई से दवाई तक
भड़ाई से नपाई तक
बहनों से भाई तक

चाचा से बाप तक
सबको फसल की तरह
कटना पिसना घिसना
सवा सेर पे जीना पड़ता है!

इसलिए फसलें लहराती हैं
लेकिन उनके चेहरे में झुर्रियां पड़ जाती हैं
सलोना रूप सुहागिन से पहले
गमले में फूल खिलने से पहले
कलाई में चूड़ियां खनकने से पहले
हड्डियां अकड़ जाती हैं
यौवन तरुणाई से पहले
प्रौढ़ दिखाई देता है
गांव के भूगोल का यह इतिहास!
किस समाज की प्रकृति से समझा जाए
कि ऐसा क्यों हो रहा इनके साथ?
हमारी तरह शरीर से इंसान दिखाई देने वालों की
हालत इतनी बदतर क्यों है?