भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गांधी (2) / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


त्रास्त दुर्बल विश्व को सुख, शक्ति के उपहार हो तुम !

मनुज जीवन जब जटिल, गतिहीन होकर रुक गया है,
शृंखलाएँ बंधनों की तोड़ता जब थक गया है,
दमन, अत्याचार, हिंसा से प्रकम्पित झुक गया है,
एक सिहरन, नव-प्रगति के, शांति के अवतार हो तुम !

कर युगान्तर युग-पुरुष तुम स्वर्ण नवयुग ला रहे हो,
नग्न-पशुबल-कर्म गाथा तुम सुनाते जा रहे हो,
मुक्त बलिपथ पर निरन्तर स्नेह-कण बरसा रहे हो,
धैर्य, नूतन चेतना, उत्साह के संसार हो तुम !

पीड़ितों, वंचित-दलित-जन के उरों में आश भर-भर
प्राणमय, संदेशवाहक, साम्य का नव-गीत गा कर,
मुक्त उठने के लिए तुम दे रहे हो पूर्ण अवसर ;
देख मानवता जगी, दुर्जेय कर्णाधार हो तुम !
1946