भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीत ग़ज़ल गाना दरबारी सबके बस की बात नहीं / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:56, 30 दिसम्बर 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गीत ग़ज़ल गाना दरबारी सबके बस की बात नहीं
पुरस्कार पाना सरकारी सबके बस की बात नहीं

दिन को रात बताना पड़ता, रात को कहना पड़ता दिन
बोझ उठाना इतना भारी सबके बस की बात नहीं

मुख्यमंत्री के चरणों में देखा है कवि को गिरते
चाटुकारिता वो मक्कारी सबके बस की बात नहीं

वल्कल वस्त्र पहनकर कोई बगुला भक्त नहीं बनता
सचमुच बनना धर्माचारी, सबके बस की बात नहीं

पानी जैसे दिखते रहना आरी जैसे चल जाना
बन जाना तलवार दुधारी सबके बस की बात नहीं

चील, बाज़ की तरह उड़े फिर रंग बदल ले गिरगिट सा
इतना हो चालाक शिकारी सबके बस की बात नहीं

तुमने कहाँ से सीखा भाई लोगों का हक खा जाना
अपनो से करना ग़द्दारी सबके बस की बात नहीं