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पहले भी शायद मैं थोड़ा -थोड़ा मरता थाबचपन से ही धीरे -धीरे जीता और मरता थाजीवित बचे रहने की अंतहीन अन्तहीन खोज ही था जीवन
जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया
तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता भी नहीं था
मैं तो रंगता रँगता था कपड़े तानेबाने रेशेरेशेताने-बाने रेशे-रेशेचौराहों पर सजे आदमक़द से भी ऊँचे फिल्मी फ़िल्मी क़दमरम्मत करता था टूटीफूटी टूटी-फूटी चीज़ों कीगढ़ता था लकड़ी के रंगीन हिंडोले रँगीन हिण्डोले और गरबा के डाँडियेडाण्डियेअल्युमिनियम के तारों से छोटी -छोटी साइकिलें बनाता बच्चों के लिएइस के बदले मुझे मिल जाती थी एक जोड़ी चप्पल , एक तहमददिन भर उसे पहनता , रात को ओढ़ लेताआधा अपनी औरत को देता हुआ।
मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
और मेरे बच्चों का मारा जाना तो पता ही नहीं चला
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख़ भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था , पता नहीं उसका क्या हुआ
मेरे हाथों का ही पता नहीं क्या हुआ
उनमें जो जीवन था , जो हरकत थी , वही थी उनकी कला
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मारे जा रहे हों एक साथ बहुत से दूसरे लोग
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था
और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो।
और जब मुझसे पूछा गया — तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक रंगरेज़ रँगरेज़, एक कारीगर , एक मिस्त्री , एक कलाकार , एक मजूर था
जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के
नन्हे पहिए
तभी मुझपर गिरी आग , बरसे पत्थर
और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाए
तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी बन्दगी का कोई जवाब नहीं आता।
अब जबकि मैं मारा जा चुका हूँ , मिल चुका हूँमृतकों की मनुष्यता में , मनुष्यों से भी ज़्यादा सच्ची ज़्यादा स्पंदितस्पन्दित
तुम्हारी जीवित बर्बर दुनिया में न लौटने के लिए
मुझे और मत मारो और न जलाओ , न कहने के लिएअब जबकि मैं महज़ एक मनुष्याकार हूँ , एक मिटा हुआ चेहरा , एक
मरा हुआ नाम
तुम जो कुछ हैरत और कुछ खौफ़ से देखते हो मेरी ओर
क्या पहचानने की कोशिश करते हो
क्या तुम मुझमें अपने किसी स्वजन को खोजते हो
किसी मित्र परिचित को या खुद ख़ुद अपने कोअपने चहरे में लौटते देखते हो किसी चहरे को.।
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