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गुरु-महिमा / कबीर

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गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान | दान।बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान ||अभिमान॥१॥
व्याख्या: अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे।
अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे |
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥२॥
व्याख्या: व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञा आवै, आज्ञानुसार ही आना - जाना चाहिए | सद् गुरु की आज्ञा जाय |कहैं कबीर सो कहते हैं कि संत हैं, आवागमन नशाय |वही है जो जन्म - मरण से पार होने के लिए साधना करता है |
व्हेवहार में भी साधु गुरु पारस को गुरु की आज्ञानुसार ही आना - जाना चाहिए | सद् गुरु कहते अन्तरो, जानत हैं कि संत वही है जो जन्म - मरण से पार होने के लिए साधना करता है |सब सन्त।वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥३॥
व्याख्या: गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त |
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त ||
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम - जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥४॥
गुरु में और पारस - पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं | पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है |
व्याख्या: कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय |
जनम - जनम का मोरचा, पल में डारे धोया ||
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥५॥
कुबुद्धि रूपी कीचड़ से व्याख्या: गुरु कुम्हार है और शिष्य भरा घड़ा है, उसे धोने के लिए गुरु भीतर से हाथ का ज्ञान जल है | जन्म सहार देकर, बाहर से चोट मार - जन्मान्तरो मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं |को निकलते हैं।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ हैसमान दाता नहीं, गढ़ि - गढ़ि काढ़ै खोट |याचक शीष समान।अन्तर हाथ सहार दैतीन लोक की सम्पदा, बाहर बाहै चोट ||सो गुरु दीन्ही दान॥६॥
व्याख्या: गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान - दान गुरु ने दे दिया।
गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं |
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥७॥
व्याख्या: यदि गुरु समान दाता नहींवाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, याचक शीष समान |तीन लोक की सम्पदापरन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, सो जो गुरु दीन्ही दान ||लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।
गुरु के समान कोई दाता नहींको सिर राखिये, और शिष्य के सदृश याचक नहीं | त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान - दान गुरु ने दे दिया |चलिये आज्ञा माहिं।कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥८॥
व्याख्या: गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य - सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर |
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर ||
गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत॥९॥
यदि व्याख्या: जैसे बने वैसे गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के - सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होहोते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगाऔर यदि प्रेम है, जो तो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा |- स्वामी पास ही हैं।
गुरु को सिर राखियेमूरति गति चन्द्रमा, चलिये आज्ञा माहिं |सेवक नैन चकोर।कहैं कबीर ता दास कोआठ पहर निरखत रहे, तीन लोकों भय नाहिं ||गुरु मूरति की ओर॥१०॥
व्याख्या: गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु - मूरति की ओर ही देखते रहो।
गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो | कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य - सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है |
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं॥११॥
व्याख्या: गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत |प्रेम बिना ढिग दूर की मूर्ति आगे खड़ी है, प्रेम निकट गुरु कंत ||उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।
जैसे बने वैसे गुरु - सन्तो को ज्ञान समागम प्रेम का निर्वाह करो | निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैंसुख, और यदि प्रेम हैदया भक्ति विश्वास।गुरु सेवा ते पाइए, तो सद् गुरु - स्वामी पास ही हैं |चरण निवास॥१२॥
व्याख्या: ज्ञान, सन्त - समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य - स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर |
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर ||
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥१३॥
व्याख्या: सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं | अतः आठो पहर गुरु - मूरति की ओर ही देखते रहो |गुण नहीं लिखे जा सकते।
गुरु मूरति आगे खड़ीपंडित यदि पढि गुनि मुये, दुतिया भेद कुछ नाहिं|गुरु बिना मिलै न ज्ञान।उन्हीं कूं परनाम करिज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सकल तिमिर मिटि जाहिं ||सत्त शब्द परमान॥१४॥
व्याख्या: ‍बड़े - बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ - गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।
गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो | उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा|
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव॥१५॥
ज्ञान समागम प्रेम सुखव्याख्या: कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडो, दया भक्ति विश्वास |छोटा बच्चा बनकर गुरु सेवा ते पाइए, सद् - वचनरूपी दूध को पियो। इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु चरण निवास ||के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।
ज्ञानसोई सोई नाच नचाइये, सन्त - समागम, सबके प्रति जेहि निबहे गुरु प्रेम।कहै कबीर गुरु प्रेमबिन, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य - स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं |कितहुं कुशल नहिं क्षेम॥१६॥
व्याख्या: अपने मन - इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये। कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय |
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ||
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ॥१७॥
सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी व्याख्या: शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते |समुख रहो, कभी विमुख मत बनो।
पंडित यदि पढि गुनि मुयेअबुध सुबुध सुत मातु पितु, गुरु बिना मिलै न ज्ञान |सबहिं करै प्रतिपाल।ज्ञान बिना नहिं मुक्ति हैअपनी ओर निबाहिये, सत्त शब्द परमान ||सिख सुत गहि निज चाल॥१८॥
व्याख्या: मात - पिता निर्बुधि - बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।
‍बड़े - बड़े विद्व्न शास्त्रों को पढ - गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता | ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती |
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय॥१९॥
कहै कबीर तजि भरत व्याख्या: ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को, नन्हा है दूर कर पीव|तजि अहं गुरु चरण गहुदेते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जमसों बाचै जीव ||जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।
कबीर साहेब कहते हैं कि भ्रम को छोडोसाबुन बिचारा क्या करे, छोटा बच्चा बनकर गुरु - वचनरूपी दूध को पियो | इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करोगाँठे वाखे मोय।जल सो अरक्षा परस नहिं, तभी जीव से बचेगा |क्यों कर ऊजल होय॥२०॥
व्याख्या: साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है। जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो। भाव - ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो।
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम |
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम ||
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट॥२१॥
अपने मन - इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु व्याख्या: कोई राजा के प्रति प्रेम बढता जये घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| कबीर साहिब कहते हैं कि इसी प्रकार सद् गुरु के प्रेम बिनसे मुख छिपाकर, कहीं कुशलक्षेम नहीं है और कल्पित देवी - देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा|
तबही गुरु प्रिय बैन कहिसतगुरु सम कोई नहीं, शीष बढ़ी चित प्रीत |सात दीप नौ खण्ड।ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ तीन लोक दीजै पीठ ||पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥२२॥
व्याख्या: सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे |
शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं | अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो |
सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय।
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय॥२३॥
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल |अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल व्याख्या: सद् गुरु सत्ये - भाव का भेद बताने वाला है|वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है|
मात - पिता निर्बुधि - बुद्धिमान सभी पुत्रों सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय।भ्रम का प्रतिपाल करते हैं | पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं |भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय॥२४॥
व्याख्या: सद् गुरु मिल गये - यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये|
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये |
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय ||
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर।
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर॥२५॥
ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष व्याख्या: यदि अपना मन तूने गुरु को दूर कर देते हैं | उन गुरुजनों की प्रशंसा दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, जो जीवो वह अपने आप समर्पित हो गया| अब देने को भव से बचा लेते हैं रहा ही क्या है|
साबुन बिचारा क्या करेजेही खोजत ब्रह्मा थके, गाँठे वाखे मोय |सुर नर मुनि अरु देव।जल सो अरक्षा परस नहिंकहैं कबीर सुन साधवा, क्यों कर ऊजल होय ||करू सतगुरु की सेवा॥२६॥
व्याख्या: जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर - नर मुनि और देवता सब थक गये| ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो|
साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है |जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्वल हो | भाव - ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो |
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान॥२७॥
राजा व्याख्या: दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की चोरी करे, रहै रंक की ओट |कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट संगत और गुरु का ज्ञान है|उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो|
कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय।लोभ नदी की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा | इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकरधार में, और कल्पित देवी - देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा |कहा पड़ा नर सोय॥२८॥
व्याख्या: कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं| मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी - धारा में ऐ मनुष्यों - तुम कहां पड़े सोते हो|
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड |
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड ||
केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय॥२९॥
सात द्वीपव्याख्या: कितने लोग शास्त्रों को पढ - गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु परन्तु बिना सतगुरु के समान हितकारी आप किसी को ज्ञान एवं शांति नहीं पायेंगे मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे|
सतगुरु तो सतभाव हैखोजे संत, जो अस भेद बताय |जीव काज को चाहहु।धन्य शिष धन भाग तिहिमेटो भव के अंक, जो ऐसी सुधि पाय ||आवा गवन निवारहु॥३०॥
व्याख्या: ऐ संतों - यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म - मरण से रहित हो जाओ|
सद् गुरु सत्ये - भाव का भेद बताने वाला है | वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है |
यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत॥३१॥
व्याख्या: यही सतगुरु मिला जु जानियेका यथार्थ उपदेश है, ज्ञान उजाला होय |यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम का भाँडा तोड़ी करित्याग कर, रहै निराला होय |संसार सागर से तर जाता है|
सद् जाका गुरु मिल गये - यह बात तब जाने जानोहै आँधरा, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान चेला खरा निरंध।अन्धे को प्राप्त हो जाये |अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द॥३२॥
व्याख्या: जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा| अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये|
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर |
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर ||
जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥३३॥
यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया | अब देने को रहा ही क्या है |  जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव |कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा ||  जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर - नर मुनि और देवता सब थक गये | ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो |  जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान |तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान ||  दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है | उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो |  डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय |लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय ||  कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं | मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी - धारा में ऐ मनुष्यों - तुम कहां पड़े सोते हो |  केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय |बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ||  कितने लोग शास्त्रों को पढ - गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे |  सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु |मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु ||  ऐ संतों - यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म - मरण से रहित हो जाओ |  यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत |करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत ||  यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है |  जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध |अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ||  जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा | अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये |  जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन |अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन ||  व्याख्या: विवेकी गुरु से जान - बुझ - समझकर परमार्थ - पथ पर नहीं चला | अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन |
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