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गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी / मोहम्मद रफ़ी 'सौदा'

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गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी

क्या ज़िद है मेरे साथ ख़ुदा जाने वगरना
काफ़ी है तसल्ली को मेरी एक नज़र भी

ऐ अब्र क़सम है तुझे रोने की हमारे
तुझ चश्म से टपका है कभू लख़्त-ए-जिगर भी

ऐ नाला सद अफ़सोस जवाँ मरने पे तेरे
पाया न तनिक देखने तीं रू-ए-असर भी

किस हस्ती-ए-मौहूम पे नाज़ाँ है तू ऐ यार
कुछ अपने शब ओ रोज़ की है तुज को ख़बर भी

तन्हा तेरे मातम में नहीं शाम-ए-सियह-पोश
रहता है सदा चाक गिरेबान-ए-सहर भी

‘सौदा’ तेरी फ़रीयाद से आँखों में कटी रात
आई है सहर होने को टुक तू कहीं मर भी