भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गूँगे-बहरे बने रहें मंज़़ूर नहीं / डी. एम. मिश्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:55, 2 जून 2023 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गूंगे - बहरे बन जाएँ मंज़ूर नहीं
गिरवी हो लेखनी हमें मंज़ूर नहीं

सत्ता से हम टक्कर लेते आये हैं
हम दरबारी ग़ज़ल कहें मंज़ूर नहीं

जो होगा , सो होगा देखा जायेगा
सच से डरकर हम भागें मंज़ूर नहीं

सेाने की भी जाँच कसौटी पर होती
हम हर बात पे हाँ बोलें मंज़ूर नहीं

अच्छे दिन की खातिर जाँ भी हाज़िर है
अंधे कूप में डूब मरें मंज़ूर नहीं

अश्कों से भी दिल के दीप जला सकते
अँधियारे में पड़े रहें मंज़ूर नहीं

हम बोंलेंगे तभी ज़माना बोलेगा
इंतेज़ार अब और करें मंज़ूर नहीं

ये हालात बदलने ही होंगे यारो
और करें अब देर हमें मंज़ूर नहीं