भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गोपी बिरह(राग सोरठ) / तुलसीदास

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:57, 23 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=तुलसीदास |संग्रह=श्रीकृष्ण गीतावली / तुलसीदास }}…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गोपी बिरह(राग सोरठ)
 
()

ऊधौ! या ब्रज की दसा बिचारौ।

ता पाछे यह सिद्धि आपनी जोग कथा बिस्तारौ।1।


जा कारन पठए तुम माधव , सो सोचहु मन माहीं

केतिक बीच बिरह परमारथ, जानत हैंा किधौं नाहीं?।2।


परम चतुर निज दास स्याम के, संतत निकट रहत हौं।

  जल बूड़त अवलंब फेन कौ फिरि -फिरि कहा कहत हैा?।3।


वह अति ललित मनोहर आनन कौने जतन बिसारौं।

 जोग जुगुति अरू मुकुति बिबिध बिधि वा मुरली पर वारौं।4।


जेहिं उर बसत स्यामसुंदर घन, तेहिं निर्गुन कस आवै।

तुलसिदास सो भजन बहावौ, जाहि दूसरो भावै।5।