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ग्रहण / सुभाष काक

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ग्रहण के छादन में
पक्षी शाखाओं में छिप गए।
मानव चाय के प्याले पीते
चहचहाते रहे
संस्कृति सिखाती है कि
भयानक की चर्चा न हो।

जिस के लिए शब्द न हों उस की स्थिति नहीं।

अबोध बालक ने रिक्त सूर्य को घूरा।
प्रौढ़ काच लेकर उसका प्रतिमान
काग़ज़ पर देखने लगे।
हमने उस में जादू पाया
भय और अंधी आशा।

याद आया
शुक्र का सूर्य में तिरोधन
और उसके पार गमन।