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ग्रीनरूम के दोस्त / सरोज कुमार

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मंच पर लगाए हैं
अलग-अलग चेहरे,
ग्रीनरूम के भीतर
दोस्त हम सभी गहरे!

रिहर्सली मुद्राएँ,
नपी-तुली आवाजें
दर्शक है नासमझ
अंधे और बहरे!

हम सबमें कुठाएँ,
लुके-छिपे संस्कार,
बाहर बैठाए हैं
रौबदार पहरे!

चुप्पी में कहते हैं,
बुर्कों में रहते हैं:
हवा भी बहे नहीं
झण्डा भी फहरे!

जीते चौराहों पर,
सभ्य शिष्ट आहें भर:
आखिर हम आदमी
समझदार ठहरे!