भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घटुत्कच पर्व / अमरेंद्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:34, 24 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेंद्र |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शिविर में हर्ष का उन्माद अद्भुत शीर्ष पर है,
ठहाकों का उमड़ता बेतहासा नाद खलखल;
विजय को देखते कौरव निकट से इस तरह से
विपक्षी पिस रहे हों पाँव से, उनके ही पदतल।

" उठे हैं जिस तरह से द्रोण क्रोधित अस्त्रा लेकर
उठेंगे पांडवों के प्राण निश्चित ही समर में;
घटुत्कच बच सकेगा मृत्युमुख से यह असंभव
हुआ है द्रोणसुत से बिद्ध, तो समझो अधर में।

" समर में वीर विक्रम शिवि तलक मारा गया है,
बचा बस कील जैसा पांडवों में पार्थ केवल;
युधिष्ठिर-भीम का, सहदेव का कुछ भय नहीं है,
जहाँ पर कौरवों को प्राप्त हर क्षण कर्ण-सम्बल।

" बचा पायेंगे केशव पार्थ को कैसे? असंभव!
यही तो देखना है इस समर में अब हमंे यह;
नहीं अब बात वश की इन्द्र के भी, जानते सब"
बहुत खुश हो रहे कौरव है आपस में ये कह-कह।

नहीं पर कर्ण को कुछ हर्ष छूता है तनिक भी,
शिविर से दूर हट कर सोच में कुछ शांत इस्थिर;
कहीं कुछ ढूँढता-सा दूर क्षिति के पार नभ पर,
हटाता मन वहाँ से, पर वहीं पर चित्त फिर-फिर।

सुयोधन देख कर यह सब बहुत विचलित हुआ, तो
कहा, " अब क्या हुआ जो मित्रा यूं गुमसुम बने हो?
तुम्हारी वाण-वर्षा से समर के प्राण थरथर,
यहाँ तुम सोच के पंकज बने, कीचड़ सने हो।

" उधर गुरु द्रोण के शर का प्रभंजन, जो कि देखा,
इधर तुमसे बरसता नील नभ से काल का घन;
छुपा क्या रह सका था उस समय में कृष्ण-भय भी,
कसा जब जा रहा था तुमसे कस कर काल-बंधन।

" कहो, अब इस समय कैसी उदासी छा रही यह?
किसी की बात से मन ही तुम्हारा डर गया क्या?
कहीं कुछ शल्य ने ही कह दिया क्या, दुष्ट मन के?
बताओ, अब विजय के द्वार पर संकट नया क्या?

" धरा के गर्भ मंे कैसी ये हलचल हो रही है?
हिमालय हिल रहा, हूँ देखता, अपनी जगह पर;
अचानक क्या हुआ, इस्थिर पवन है साँस रोके?
सलेटी शांति तम को बुन रही नभ की सतह पर। "

सुयोधन की सुनी बातें तो किंचित मुस्कुरा कर,
लगा कुछ इस तरह कहने वहीं उसको बिठाकर।
जरा-सा शून्य में कुछ देखता-पढ़ता हुआ सा,
कभी तो हाथ नीचे कर, कभी ऊपर उठा करµ

" नहीं कुछ भी नहीं है बात ऐसी जो बताऊँ,
जरा-सी बात थी मन में जगी, पर बात ही थी,
उठी थी भोर में जो घेर कर तम रात काली,
नहीं था भोर, मेरे मित्रा, वह तो रात ही थी।

" गिरा जब द्रोणसुत के क्षिप्र शर से था घटुत्कच,
भयंकर नाद करता लौहरथ पर, गिरि गिरा हो,
सुना, तो काँप मेरा मन गया था एक क्षण को,
भले अब तक हिडिम्बा-सुत बचा या अधमरा हो।

" बहुत विक्रम बली, जो मित्रा मेरे पुत्रा का है,
विपक्षी है, उसे सुत की तरह ही मानता हूँ;
नहीं कुछ छल-कपट उसके हृदय में ही रहा है,
उसे मैं जन्म से ही, सच कहूँ, पहचानता हूँ।

" हिडिम्बा शक्ति की आराधिका है, ज्ञात सबको
चढ़ाया यह गया है बेदी पर; ज्यों, भेंट रण को;
तमस में खोजता है अब घटुत्कच हो अकेले,
न जाने कौन-सी खोई विरल धूमिल किरण को!

" सुयोधन मित्रा मेरे, सोचता हूँ, सच कहूँ मैं,
जिसे भी जो मिला इस युद्ध में हो, पूर्व को क्या?
यहाँ तो अंग से लेकर मगध तक रक्त लथपथ,
कहाँ कुछ पा सका यश-मान, बस खोया-ही-खोया।

" बचा है कौन-सा भूभाग पूरब का, कहो तो,
लहू से अंग ही क्या, रक्त रंजित है कलिंग तक;
अंधेरे में भटकते शावकों पर हिंस्र पशु की
लगी हो आग जंगल में ही, ऐसी, आँखें भक-भक।

" पिरामिद शूरमाओं का लगा था आज भारत,
मुझे डर है, कहीं भारत में ऐसा हो न जाए;
दिवस का दीपता सूरज उठा यह तमतमाता,
सदा के वास्ते ही यह तमस में खो न जाए!

" नहीं यह बात केवल पूर्व की है, मित्रा मेरे,
यहाँ तो मध्य से पश्चिम क्षितिज तक रक्त लथपथ;
भयानक लग रही हैं डाकिनी-सी सब दिशाएँ,
गगन या वारि, वायु, भूमि, पावक, कौन संयत?

" हुआ है जिस तरह से रिक्त भारत शूरबल से,
बनेगा कौन रक्षक संकटों में? देवता क्या?
मिला जो पुण्य बल से तेज, हमसे छुट रहा है,
पता जिसका नहीं अब तक चला, उसका पता क्या?

" पड़ा था क्या, अगर जो राज आधा बाँट देते,
रही हैं भूमि किसकी किन युगों में क्रीत दासी?
शवों के राज पर ही मित्रा क्या शासन करोगे?
सिंहासन, राजसत्ता, राजभोगों के विलासी.

" पुते सिन्दूर, फूटी चूड़ियों, सित माँग दपदप।
सजाया जा रहा कुरुराज में यह लोक कैसा?
भला क्यों पूछते हो मित्रा मुझसे, मैं दुखी क्यों?
घड़ी जब हर्ष का हो, ये घुमड़ता शोक कैसा?

" अगर था बैर मुझको, पार्थ से था, जानते हो,
नहीं विध्वंश ऐसा लोक का मैं चाहता था;
कहीं कुछ चूक तो मुझसे हुई है, मानता हूँ,
धरा नृपहीन होगी इस तरह से, क्या पता था।

" युगों के अनुभवों का कोष अपने साथ भी था,
सभी कुछ छिन गये हैं; क्या बचा है, इस समर में?
किशोरों के लहू की चीख आती है, सुनो तो
दिशाएँ चीर कर के बेतहासा आज घर में।

" मुझे अभिमन्यु के मरने का जानो दुख बहुत है,
मुझे है शोक अपने, जो मरे हैं, सात सुत का;
मरेगा भीमसुत ही, तो नहीं क्या क्लेश होगा?
छुटेगा क्या कभी मुझको लगा ये पाप छुतका!

" सुनो, जब दिक्विजय को मैं चला था सैन्यबल ले
समर्पित हो रहे थे देश-द्वीपों के प्रजापति;
उठा था भाव यह मेरे हृदय में, मित्रा, तब भी,
सभी हो एक शासन में बँधे, तो हर्ज क्या क्षति!

" बराबर में विभाजित हो सभी सुख, दुख तलक भी,
सभी का देश भारत हो, न शासक और शासित;
नहीं वह मर सका है भाव मेरा आज तक भी
नहीं मैं चाहता अपना ये भारत हो विभाजित।

" हमारा पूर्व, पश्चिम, और उत्तर और दक्षिण
बने यह सिंधु-सा विस्तृत, कहीं पर रोक न हो;
हिमालय-सा उठा हो शीष, अम्बर की सतह तक,
कभी भी दीप्त इसके भाल पर कुछ शोक न हो।

" उठे इसके हृदय में पुण्य, तो सुरलोक पहुँचे,
मिलेगी मुक्ति सुर को, मुक्त भारत मंत्रा बाँटे;
नहीं यह हो सका, कुछ सोच कर ही चुप रहा था,
उसी का यह अँधेरा है, उसे अब कौन छाँटे!

" कहीं तुम भूल करते जा रहे हो' कौन कहता,
तुम्हें थी जिद, तुम्हारा सोच दुर्गम दुर्ग जैसा;
इसीसे कुछ नहीं बोला कभी भी, भूल थी यह,
कहाँ है लोकहित में आत्मकेन्द्रित सोच ऐसा?

" सभी कुछ देख कर भी, कुछ दिखाई क्यों न देता?
लड़ाए जा रहे हैं, लड़ रहे हैं प्रेत केवल;
कहाँ थी खोज अमृत की, कहाँ तो रक्त लथपथ,
तृषा के नाम पर क्या मिल रहा है? रेत केवल।

" हिडिम्बापुत्रा की बलि भी निकट है, जानता हूँ,
मरेगा काल के हाथों से यह भी, पूर्व निश्चित;
कहूँ क्या, सोच कर इस बात को ही मैं व्यथित हूँ,
नहीं ऐसा हुआ था, पर हृदय है आज विचलित। "

सुयोधन ने सुना सबकुछ उठा आवेग धो कर,
लगा कहने हृदय की बात धीरे शांत होकरµ
" उजाला किस तरह का सौंपना तुम चाहते हो,
भुरकवा की घड़ी में इस तरह से ध्वांत होकर?

" क्रिया का जब समय है, सोच में डूबे हुए हो,
तुम्हें क्या हो रहा है आज यह, वसुषेन सँभलो!
तमस से पूर्ण अब दुर्जय भयावह क्षण निकट है,
कहीं यह ग्रास न ले कौरवों को, कर्ण निकलो!

" तुम्हारे तेज से पांडव मलिन, आश्चर्य क्या है,
अचंभे में पड़ा है कृष्ण, ऐसा था न विचलित;
मुदा यह काल बनकर जो हिडिम्बासुत खड़ा है,
उसे करना तुम्हें ही कर्ण, अब तो काल कवलित।

" नहीं देखा कि कैसे कौरवों पर टूटता था,
कभी पर्वत, कभी तो इन्द्र का ही वज्र बन कर;
अभी न अग्निसुर की आग वह ठंडी हुई है
हिडिम्बापुत्रा को सोचे बिना उसमें हवन कर!

" नहीं तो यह असुर भी सिद्ध होगा अग्निऋषि ही,
हमें पांडव समझ कर खाकेगा वह क्रोध में आ,
जला डालेगा, जैसा लग रहा है देख यह सब,
हटा कर सोच-चिंता, कर्ण, अब तो बोध में आ! "

सुना जो नाम खांडव का, तुरत ऐसा लगा था,
लगी हो आग काया में, धधकती, कर्ण के ही,
तुरत लौटा था अपने चेत में मुट्ठी कड़़ा कर,
अभी तक लग रहा था जो सबों में ही विदेही।

कहा, " क्या बोलते हो, मित्रा मेरे, अब रुको भी,
अभी भी आग खांडव की लपटती, है बुझी क्या?
सभी हैं पार्थ, जो भी पार्थ के संग में खड़े हैं,
उठीं सौ आँधियाँ लेकिन कभी गर्दन झुकी क्या?

" भले ही व्योम के ऊपर उड़े वह क्यों न पर्वत,
विजय पर तीर छूटेगा, दिखेगा रेत बनते,
अभी देखा नहीं है भीमसुत ने क्रोध मेरा,
दिवाकरसुत-कला के इन्द्रधनु को प्रेत बनते।

" अलम्बुस को गिराया, तो गिराया, क्या गिराया?
गिरा कैसे सकेगा छल-कपट से अस्त्रा मेरा?
उगा जब तक नहीं है भोर लेकर रश्मि-आलय
तभी तक व्योम-भू पर है लगा तमतोम-फेरा।

" मुझे तो लग रहा है अब हिडिम्बासुत समर में
नहीं आया समर में है पिता की हाँक सुन कर;
मृत्यु की बीन के वश में यहाँ तक आ गया है,
वही होगा, चला हो लाख वह घर से शकुन कर।

" न जाने सुधि कहाँ से आ गई मुझको अभी ही
हिडिम्बापुत्रा का वह पाप अनजाने अचानक;
किया अपकर्म जो है इस बली ने, है कलंकी,
छिपा सकता नहीं इस पातकी का घोर पातक।

" मिली जो वत्सला थी पार्थसुत अभिमन्यु को ही,
सुयोधनपुत्रा लक्ष्मण को नहीं, तो छल नहीं था?
निभाई भूमिका थी इस हिडिम्बापुत्रा ने ही,
किसी भी वीर नर-सुर की कला का बल नहीं था।

" हृदय के पुष्प को जिसने मरोड़ा क्रूर कर से,
वधिक के कर्म से ही कर्म यह जिसका जुड़ा है;
तनय यह भीम मुझको लग रहा है पार्थ-सा ही,
अभी कौरव के हित में पांडवों के संग खड़ा है।

" हृदय के राग का बैरी घटुत्कच प्राणहंता,
मरेगा अब समर में नीच अपने कर्म कारण;
बचा पायेंगे केशव याकि पांडव, यह असंभव,
निकट है काल उसका, मृत्यु सर पर। क्या निवारण?

" नहीं पाई विजय ने इस पतित पर जो विजय तो,
रखा है अस्त्रा सुरपति का संजोया-सा अभी भी;
खड़ा जो लक्ष्य के आगे मिलेगा, काल तक भी,
किसी पर टूट सकता है प्रलय-सा यह कभी भी।

" नहीं सोचा कभी इसने ज़रा भी मातृहित में
हिडिम्बा के प्रणय को दान में ही क्या मिला था;
भले ही पुत्रा उसको मिल गया था यह घटुत्कच
वरण की बात पर किसका ज़रा भी मन हिला था?

" कहाँ स्वीकार माता को हुआ था ब्याह ऐसा?
कहाँ घर ले गया था मान से ही भीम उसको?
सभी विस्मृत किए हैं पुत्रा उसका यह घटुत्कच,
प्रणय के साथ छल था, भूल पाया मैं न जिसको।

" जिसे दुख ही नहीं कुल-वंश के अपमान तक का,
जिसे माँ की व्यथा का एक टुक भी दुख नहीं हो।
हमारे दीप्त भारत की कथा का अंश कैसा?
पतित जो शौर्य है, वह तो कभी आमुख नहीं हो!

" बली है पार्थ से बढ़कर घटुत्कच, हो विदित यह,
नहीं है ज्ञान इसका कम किसी से, यह न समझो;
धुआँ, बादल, अनल, वायु-सृजन में दक्ष है यह,
कला अद्भुत है इसकी हर कला में और भी जो।

' यही अच्छा रहेगा अस्त्रा सुरपति का दिया जो,
असुरपति को सुलाने में ही क्यों न यह खपा दूँ;
पड़ा जो बोझ मन पर है लिया उपकार-सा ही,
हटाऊँ जब समर से उसको, इसको भी हटा दूँ।

" कहाँ मैं चाहता था ग्रहण करना इन्द्र-आयुध?
नहीं जाना कभी भी दान का प्रतिदान होता,
छुपा देता धरा की कोख में या तो गगन में,
तुम्हारा उस समय मन में न आया ध्यान होता।

" विजय पानी अगर है, तो विजय ही यह अधिक है,
भुजाओं में दहकती-घूमती ये आग लपलप;
शिराओं में समुन्दर शौर्य का हलचल उठाता,
नहीं क्या सुन रहे हो शोर उसका, नाद छपछप?

" समर में वज्र सुरपति का गिरेगा, तय हुआ यह,
हिडिम्बापुत्रा पर ही और कल ही मित्रा, निश्चय;
लड़ ूँगा पार्थ से निर्द्वन्द्व होकर प्राणपन से,
रहा कुछ भी नहीं कल के लिए अब और संशय।

" जिसे अपनी भुजाओं का भरोसा ही न होता
वही तो ढूँढता है देव-दानव का सहारा;
मुझे अपनी भुजाओं पर भरोसा, मैं अकेला,
किसी के सामने अपने करों को कब पसारा? "

रुका, देखा क्षितिज के छोर पर वसुषेन ने कुछ,
तमस के बादलों के बीच उड़ता एक पर्वत;
दिखा वटवृक्ष-सा, जो है गगन को नापता-सा
जिधर से वह गुजरता था वहीं का देश अवनत।

उड़ाए जा रहा है भूमि पर के दुर्ग सारे,
दिशाएँ काँपती थर-थर, गगन पट-सा सिहरता;
प्रलय के काल में ज्यों काल सारी शक्ति लेकर
पवन की छाती पर चढ़ कर दिशाओं में विचरता।

लगा यूँ कर्ण को, वह आ रहा हो गति उड़ाए,
उसी की ओर ही मतहीन हो मतिभ्रष्ट होकर;
लगाएगा अभी ब्रह्मांड को वह क्रोध में आ
अपरिमित शक्ति लेकर सृष्टि भर की, एक ठोकर।

हँसा वसुषेन यह सब देख, तत्क्षण फिर सँभल कर,
उठाया हाथ अपना और फेंका व्योम पर कुछ;
बहुत काँपा क्षितिज, जल, व्योम, पावक और मारुत
लुढ़कता जा रहा है शैल-सा तम तोम पर कुछ।

सुयोधन कुछ समझ पाया नहीं, सोचा बहुत ही,
उठा, अपने शिविर में मंद गति से लौट आया;
वहाँ जो हर्ष देखा कौरवांे का, नाद करता
भला क्या रोकता स्वयं को, सुयोधन भी अघाया।
 
सुना जैसे सुयोधन ने समर में दूसरे दिनµ
मरा है कर्ण के हाथों समर में खल घटुत्कच;
कहा यह हर्ष में, " कैसे बचेगा पार्थ देखें;
छिपेगा कर्ण के तीरों से कब तक और बच-बच?

मरा जैसे हिडिम्बासुत, यही सब को लगा, ज्यों,
समर पर हो गई है जीत अब तो कौरवों की;
बदलने लग गई है राशि अपनी बद्ध गतियाँ
सबल कर में कसी हो रास जैसे नवग्रहों की।