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घर लौटते पिता / दिलीप चित्रे

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मेरे पिता देर शाम की ट्रेन से यात्रा करते हैं
चुप सहयात्रियों के बीच खड़े उस पीली रोशनी में
उनकी नहीं देखती हुई आँखों से उपनगर फिसलते चले जाते हैं
उनकी पैण्ट और शर्ट गीली है और उनकी काली रेनकोट
कीचड़ से सनी और उनका झोला जिसमें किताबें ठुँसी हुई हैं
अब फट कर अलग होने पर है, उम्र से धुन्धलाई उनकी आँखें
बुझती हुई बढ़ती हैं घर की तरफ़ मानसून की उमस भरी रात में
अब मैं उन्हें ट्रेन से उतरते हुए देख सकता हूँ
जैसे किसी लम्बे वाक्य से एक शब्द गिरा हो ।
वे उस धूसर प्लेटफॉर्म की लम्बाई को जल्दी-जल्दी पार करते हैं
रेलवे लाइन पार करते हैं, गली में आ जाते हैं,
उनके चप्पलें कीचड़ से चिपचिपा गई हैं लेकिन वे जल्दी-जल्दी आगे बढ़ रहे हैं ।

घर पर वैसे ही, मैं उन्हें फीकी चाय पीते देखता हूँ,
बासी रोटी खाते हुए, एक क़िताब पढ़ते हुए,
वे शौच को जाते हैं चिन्तन के लिए
मनुष्य का मानव निर्मित दुनिया से दुराव ।
बाहर आ कर बेसिन के पास वे काँप रहे होते हैं
उनके भूरे हाथों पर ठण्डा पानी दौड़ रहा है
कुछ बूँदें उनकी कलाई पर पकते हुए बालों में अटक जाती हैं
रुष्ट बेटों ने अक्सर उनसे चुटकले या अपने राज़
साझा करने से मना किया है, अब वे सोने जाएँगे
रेडियो पर आती कड़कड़ाती आवाज़ सुनते हुए, स्वप्न देखते हुए
अपने पूर्वजों और अपने पोते-पोतियों के, सोचते हुए
किसी पहाड़ी दर्रे से किसी महादेश में प्रवेश करते हुए बंजारों के बारे में ।