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घर / हरे प्रकाश उपाध्याय

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घर
घर में सबसे पहले
एक दरवाजा है
स्बसे पहले
दरवाज़े पर किवाड़
किवाड़ पर साँकल

घर में कई -कई दीवारें हैं
दीवारों पर
नाचते रहते रंग हैं
और रेखायें बीमार हैं
एक घड़ी है
जिसमें काँटे घूम रहे हैं गोल-गोल
धरती से होड़ लेते

कोनो में घर के
मकड़ी के जाले हैं कई
मकड़ी के जालों के नीचे एक-एक कुआँ है
घर में तीर-तलवार हैं
रक्त से सना
मुसीबतों से लड़ता मौसम है
हवा है कुठ गैलन
कुछ टैंक पानी है
अँधेरा है फैला हुआ
और ऊपर रोशनी भी गिरती हुई
तिरछी
घर में मैं हूँ ,तुम हो
औरतें हैं, बच्चे हैं
और वृद्धजन भी
यौवन है ताश की पत्तियाँ
फेंटता हुआ
घर में सब रिश्तें-नाते हैं
एक दूसरे से बँधें
एक दूसरे से सन्त्रस्त
घर में सम्भावना है
और धान फटकती अस्म्भावना भी
चूल्हे तर बैठी है माँ
ऊष्मा बचाए रखने की जुगत में भिड़ी

घर में कुछ जरूरी चीजे़ हैं
कुछ दिखाई पड़ती, कुछ छुपकर रहतीं

यहाँ सुबह से शाम तक जाने की सवारी है
और शाम से सुबह तक लौट आने की भी
एक रास्ता इधर है
घर के बाहर निकल आने का
एक रास्ता इधर है
घर में भटक जाने का
घर में एक छपकली
रोज़ दीवार पर चढ़ती है
रोज़ गिर जाती है
घर में न जाने कितनी मक्खियाँ रोज
 बिना सूचना के मर जाती हैं
 गरूड़ पुराण का एक पन्ना रोज़् फट जाता है