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Kavita Kosh से
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है ?जी तो नहीं कढता है ?
कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं , खींचते हैं ठेलाधूल धुआँ भाफ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है ?घिन तो नहीं आती है ?
दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे , अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत ?जी तो नहीं कुढता है ?घिन तो नहीं आती है ?
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