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"चन्द्रकुंवर बर्त्वाल / परिचय" के अवतरणों में अंतर

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आलेखः (2)-अशोक कुमार शुक्ला
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गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर जिस बालक का जन्म हुआ था कदाचित उसके संबंध में यह कभी नहीं सोचा गया था कि सन् 2011 में अपनी मृत्यु के 64 वर्ष बाद (इनकी मृत्यु 14 सितम्बर 1947 को हुयी) उत्तराखंड की दस शीर्ष विभूतियों में उसकी गणना की जायेगी। हाल ही में ‘तहलका’ पत्रिका द्वारा उत्तराखंड की दस शीर्षस्थ विभूतियों में पहाड के इस कालिदास को चुना गया है। (तहलका फरवरी 2011)
 
गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर जिस बालक का जन्म हुआ था कदाचित उसके संबंध में यह कभी नहीं सोचा गया था कि सन् 2011 में अपनी मृत्यु के 64 वर्ष बाद (इनकी मृत्यु 14 सितम्बर 1947 को हुयी) उत्तराखंड की दस शीर्ष विभूतियों में उसकी गणना की जायेगी। हाल ही में ‘तहलका’ पत्रिका द्वारा उत्तराखंड की दस शीर्षस्थ विभूतियों में पहाड के इस कालिदास को चुना गया है। (तहलका फरवरी 2011)
  
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(यह पत्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित ‘मेघ नंदिनी’ के पृष्ठ 101 से साभार उदृधृत किया गया है)
 
(यह पत्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित ‘मेघ नंदिनी’ के पृष्ठ 101 से साभार उदृधृत किया गया है)
  
लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पांच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को ही मुखर किया। अपने दुखों के सम्बन्ध में आजादी के ठीक पहले कथाकार यशपाल केा भेजे गये एक पत्र 27 जनवरी 1947 को उन्होंने लिखा थाः-
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लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पांच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को ही मुखर किया।  
 
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दिनांक 27 जनवरी 1947
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प्रिय यशपाल जी,
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अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पडा हुआ हूॅ और बीस- पच्चीस दिन अधिक से अधिक क्या चलूंगा.....................सुबह को एक दो घंटे बिस्तर से मै उठ सकता हूॅ और इधर उधर अस्यव्यस्त पडी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूॅ। बीस - पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊंगा, आपके पास भेज दूंगा।
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(यह पत्र गढवाल विश्वविद्यालय में डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध प्रबंध में उद्धृत हुआ है।)
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और सचमुच इन शब्दों को लिखने के बाद सदा सदा के लिये इस लोक को छोड दिया और कभी जागकर न उठने के सो गया।
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साहित्यकार मंगलेश डबराल उनके संबंध में लिखते हैः-
 
साहित्यकार मंगलेश डबराल उनके संबंध में लिखते हैः-
  
 
‘‘ कई साल पहले पडी चंद्र कुंवर बर्त्वाल की दो पंक्तियां- ‘अपने उद्गम को लौट रही, जीवन की नदियां मेरी’ आज भी मुझे विचलित कर देती हैं।’’
 
‘‘ कई साल पहले पडी चंद्र कुंवर बर्त्वाल की दो पंक्तियां- ‘अपने उद्गम को लौट रही, जीवन की नदियां मेरी’ आज भी मुझे विचलित कर देती हैं।’’

14:57, 6 मार्च 2011 का अवतरण

शापित भूमि से उपजा एक विलक्षण कुंवर !

आलेखः (1)-अशोक कुमार शुक्ला


14 सितम्बर की तिथि मात्र हिन्दी दिवस के रूप में याद किये जाने का दिवस नहीं है। यह दिवस हिन्दी कविता जगत की एक ऐसी विभूति के निर्वाण का दिवस भी है जिसने मात्र 27 वर्ष के अपने जीवन काल में हिन्दी को ऐसी समृद्वशाली रचनायें दी जो अनेक विद्वजनों के लिये आज भी शोध का विषय बनी हुयी हैं। 21 अगस्त 1919 में ई0 में तत्कालीन गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर एक बालक का जन्म हुआ। (इनके जन्म की तिथि के संबंध में यह विवाद है कि यह 21 अगस्त 1919 है अथवा 20 अगस्त 1919। गढवाल विष्वविद्यालय श्रीनगर मे डा0 हरिमोहन के निर्देषन में डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह प्रमाणित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की जन्म तिथि 21 अगस्त 1919 है ) उनके नाम के सम्बन्ध में भी डा0 हर्षमणि भट्ट द्वारा निष्पादित शोध में यह अवधारित हुआ कि कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल का असली नाम कुंवर सिंह बर्त्वाल था। श्री चन्द्र कुंवर की मां का दिया हुआ नाम श्रीचन्द्र था तथा उनके पिता का दिया हुआ नाम कुँवर सिंह था और इनका प्रसिद्ध साहित्यिक नाम है श्रीचन्द्रकॅुवर। इस प्रकार माँ और पिता दोनो की भावनाओं की रक्षा हो सके इसलिये उन्होंने अपना साहित्यिक नाम चन्द्रकॅुवर अपनाया था। वे अपनी माता पिता की प्रथम और इकलौती संतान थे।

उनके परम प्रिय मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा के अनुसार उनकी प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई। तद्पश्चात पौड़ी गढ़वाल के मिशन कालेज (वर्तमान में मैसमोर इन्टर कालेज) से 1935 में उन्होंने हाई स्कूल किया और उच्च शिक्षा लखनऊ और इलाहाबाद में ग्रहण की। 1939 में इलाहाबाद से स्नातक करने के पश्चात लखनऊ विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास से एम0 ए0 करने के लिये प्रवेश लिया जहां उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी रहते थे। वे दोनो वहाँ साथ ही रहने लगे थे जहाँ श्री बहुगुणा ने उन्हें अत्यधिक स्नेह और संबल प्रदान किया। बांज और बुरांस की जड़ों से रिसता हुआ पानी पीने की आदत डाल चुके श्री बर्त्वाल से मैदानी क्षेत्रों की आपाधापी सहन न हो सकी और वे बीमार रहने लगे और अंततः इतना बीमार हुए कि 1941 के दिसम्बर माह में आगे की पढ़ाई छोड़कर अपने गाँव वापस लौट आए । लखनऊ से लौटकर उन्हें पंवालिया जाना पडा जो उनके जन्म ग्राम मालकोटी से कुछ दूरी पर स्थित था और मालकोटी से अधिक समृद्ध और प्राकृतिक शोभा से युक्त था। यह चमोली जनपद में रूद्रप्रयाग और केदारनाथ के बीच केदारनाथ मार्ग पर भीरी के नजदीक बसा ग्राम है जिसे बर्त्वाल परिवार ने सिंचित और अधिक उत्पादकता रखने वाली भूमि पर हरियाली और खुशहाली की उम्मीदों के साथ लिया था।

इस स्थान के संबंध में डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘हिलांस’ मासिक के सितम्बर 1980 अंक में प्रकाशित लेख में कहा है कि वह ग्राम पंवालिया केदारनाथ के पंडेा के अधिकारक्षेत्र में हुआ करता था। इन पंडों ने किसी लाला से एक हजार रूपये कर्ज लिया था जिसे चुकाने का दबाव उन पर था। जब लाला के कर्ज केा चुकाने में उन्हे सफलता नहीं मिली तो विपत्ति के समय में कर्ज को चुकाने के लिये इस गाँव पंवालिया को बेच कर कर्ज की अदायगी करने की सोची। इसी समय उस लाला ने बडी क्रूरता के साथ पंवालिया को मात्र हजार रूपये में बर्त्वाल परिवार को बेचने का प्रस्ताव किया। मालकोटी से अलग एक नया धरौंदा बनाने के अवसर का उपयोग करने की आशा से बर्त्वाल परिवार ने यह जमीन ले ली। यह मान्यता है कि बुरे दिनों में भूमि और भवन से वंचित होने वाले उन धार्मिक व्यक्तियों ने इस भूमि पर बसने वालों को न फलने का अभिशाप दिया। उन्होंने जब पंवालिया को छोडा तो वहां की मिट्टी कई देवस्थानों को चढाई और बददुआयें दी। बददुआवों के असर ने बर्त्वाल परिवार को छिन्न भिन्न करना प्रारंभ कर दिया। जब से बर्त्वाल परिवार ने पंवालिया में डेरा डाला, तभी से कविवर बीमारी की चपेट में आ गये और उसका परिवार भी कालान्तर में प्रभावित हुआ।

वे अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाये। डा0 उमाशंकर सतीश ने ‘चन्द्रकुवर बर्त्वाल की कवितायें भाग-एक’ में यह रहस्योद्घाटन किया हैं कि उन्होंने अपना लिखा संकोचवश पत्रिकाओं में भी नहीं भेजा। बस स्वातः सुखाय कवितायें लिखी और पास रख लीं बहुत हुआ तो अपने मित्रों को भेज दीं। उनके मित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा जी को उनकी रचनाये सुव्यवस्थित करने का श्रेय जाता है जिन्होंने 350 कविताओं का संग्रह संपादित किय । डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया था। उनकी दूरदृष्टि इतनी तीखी थी कि उस समय ही वर्तमान शिक्षा प्रणाली और अंतराष्ट्रीय बाजारवाद के दुष्प्रभावों को भांप लिया था। ‘मैकाले के खिलौने’ नामक कविता का अंश देखियेः-

मेड इन जापान , खिलौनों से सस्ते हैं

लार्ड मैकाले के ये नये खिलौने

इन को ले लो पैसे के सौ-सौ दो-दो सौ

राष्ट्रीयता का भाव उनकी रचनाओं में जहां भी उभरता था पूरे पैनेपन के साथ उभर कर आता था तभी तो आज के परिदृष्य उन्होने सत्तर साल पहले ही खींचकर रख दिये थे।

उनकी छुरी नामक कविता का अंश देखिये:-

मजदूरों की सरकार ओह इटली तू जाय जहन्नम को,

लीग सी नाज्.ारी जो छोडी नामर्द कहें क्या हम तुम को।

श्री बर्त्वाल की अब तक अन्वेषित लगभग आठ सौ से अधिक गीत और कवितायें यह सिद्ध करती हैं कि चन्द्रकुवर बर्त्वाल हिन्दी के मंजे हुये कवि थे ।

उत्तराखण्ड के सुपरिचित इतिहासकार कैप्टेन शूरवीर सिंह पँवार का मत है कि महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की घनिष्ठता थी। ’उत्तराखण्ड भारती’ त्रैमासिक जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 पर यह अंकित है कि निराला जी के साथ 1939 से 1942 तक उन्होंने अपना संघर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था। उन्होंने 25 से अधिक गद्य रचनायें भी लिखीं हैं जिससे कहानी ,एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनायें भी हैं परन्तु उनके लिखे पद्य के अपार संग्रह से यह सिद्ध होता है कि वे मूलतः कवि थे। आम हिन्दुस्तानी की तरह उन्होंने भी आजादी का सपना देखा था लेकिन उनकी दूरदृष्टि आजादी के बाद के भारत को भी देख सकती थी शायद इसीलिये उन्होंने लिखा थाः-

हृदयों में जागेगा प्रेम और

नयनों में चमक उठेगा सत्य,

मिटेंगे झूठे सपने।

लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पाँच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को मुखर कियाः-

मकडी काली मौत है, रोग उसी के जाल,

मक्खी से जिसमें फँसे ,चन्द्र कुँवर बर्त्वाल।

खडी हो रही हड्डियाँ, सूख रही है खाल।


अपने दुखों के सम्बन्ध में कथाकार यशपाल केा भेजे गये एक पत्र 27 जनवरी 1947 को उन्होंने लिखा थाः-

प्रिय यशपाल जी,

अत्यंत शोक है कि मैं मृत्युशैया पर पडा हुआ हूँ और बीस- पच्चीस दिन अधिक से अधिक क्या चलूंगा....सुबह को एक दो घंटे बिस्तर से मै उठ सकता हूँ और इधर उधर अस्त-व्यस्त पडी कविताओं को एक कापी पर लिखने की कोशिश करता हूँ। बीस - पच्चीस दिनों में जितना लिख पाऊंगा, आपके पास भेज दूंगा।

और सचमुच इन शब्दों को लिखने के बाद वे शायद आजाद भारत की हवा में कुछ साँसे लेने के लिए 14 सितम्बर तक जिन्दा रहे। 14 सितम्बर 1947 की रात हिमालय के लिये काल रात्रि साबित हुई जब हिमालय के अमर गायक चन्द्रकुवर बर्त्वाल ने सदा सदा के लिए इस लोक को छोड दिया और हमेशा के लिए सो गए। ऐसा था वह रविवार का दिन। वे चले गए और अपने पीछे अपनी अव्यवस्थित काव्य संपदा को यह कह कर छोड गये--

मैं सभी के करूण-स्वर हूँ सुन चुका

हाय मेरी वेदना को पर न कोई गा सका।

भारत में सनसनीखेज खुलासे करने के लिये विख्यात ‘तहलका’ पत्रिका द्वारा हाल ही 2011 में उत्तराखंड के दस महानायकों की सूची में कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल को स्थान देते हुये लिखा गया हैः-

हिंदी साहित्य में छायावाद के प्रतीक कविवर सुमित्रानंदन पंत तो देश दुनिया के साहित्य जगत में प्रसिद्व हैं ही इसलिये तहलका ने चुना हिमवंत के कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल को जिन्होंने मात्र 28 साल की उम्र में हिंदी साहित्य को अनमोल कविताओं का समृद्ध खजाना दे दिया था। समीक्षक चंद्र कुंवर बर्त्वाल को हिंदी का कालिदास मानते हैं।

प्रारंभ में वे ‘रसिक नाम से लिखते थे। कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल की डायरी में एक स्थान पर लिखा हैः-

मेरा ध्येय हिंदी की सेवा करना होगा। मेरा आजन्म प्रयास होगा कि हिंदी को कोई नयी चीज भेंट करूं जो मेरे ही घर की बनी हो, विलायत जापान से बनकर नहीं आयी हो।

डायरी के पृष्ठ पर अंकित तिथि 6 मार्च, 1938

साहित्यकार मंगलेश डबराल लिखते हैः-

‘‘ कई साल पहले पडी चंद्र कुंवर बर्त्वाल की दो पंक्तियां- अपने उद्गम को लौट रही, जीवन की नदियां मेरी’ आज भी मुझे विचलित कर देती हैं।’’

प्रसिद्व विद्वान डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों मेंः-

‘‘श्री चंद्र कुंवर बर्त्वाल कब हिंदी संसार में आए और कब चले गए इसका किसी को पत नहीं लगा, लेकिन उनके रूप में हिंदी साहित्य ने अपना सबसे बडा गीति काब्य रचयिता पाया और खो दिया।’’

चन्द्रकुंवर बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। हिन्दी साहिन्य के भण्डार की समृद्वि और हिन्दी काव्य जगत मंे उनका योगदान विशेष उल्लेखनीय है। हिमालय का सौंदर्य और उसके विविध चित्र उनके काव्य में यत्र तत्र अनायास ही बिखरे मिल जाते है। वे मूलतः कवि थे। इसलिये गीत और कवितायंे उन्होने मुख्य रूप से लिखी हैं। अव तक उपलब्ध और अन्वेषित रचनाओं के आधार पर कह जा सकता हैकि उन्होने लगभग आठ सैा से अधिक गीत ओर कवितायें लिखी । इसके अतिरिक्त करीब 25 से अधिक गद्य रचनायें की , जिनमें कहानी, एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनाऐं प्रमुख हैं। कवि अपनी रचनाओं का सुव्यवस्थित रूप से प्रकाशन नहीं कर पाए थे। यह श्रेय उनके तित्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा को मिला। अब डा0 उमाशंकर सतीश ने भी उनकी 269 कविताओं व गीतों का प्रकाशन किया हेै। कवि का कृतित्व इस प्रकार है।

1-पयस्विनी, 350 कविताओं का पं0 शंभूप्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित संकलन

2-म्ेाधनन्दिनी, तीन भागों में संपादित संकलन 1953

3-जीतू, 100 कविताओं का संकलन 1951 प्रकाशक शंभूप्रसाद बहुगुणा ,आई टी कालेज लखनऊ

4-कंकड- पत्थर, 70 कविताओं का संकलन

5-गीत माधवी, 60 गीतों का संकलन ,प्रकाशक कुसुमपाल नीहारिका राय विहारी रोड़,लखनऊ

6-प्रणयिनी, तीन एकांकियों का संकलन, प्रकाशक कुसुमपाल नीहारिका राय विहारी रोड़,लखनऊ

'7-'विराट-ज्योति, 34 प्रगतिशील कविताओं का संकलन

8-नागिनी, गद्य कृतियों का पं0 शंभूप्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित संकलन

9-विराट-हृदय, प्रकाशक अलनन्दा-मंदाकिनी प्रकाशन, लक्षमण भवन हुसैन गंज, लखनऊ


विशेष पड़ताल / दस्तावेज

उस विलक्षण कुंवर के कुछ पत्र!

आलेखः (2)-अशोक कुमार शुक्ला

गढवाल जनपद के चमोली नामक स्थान मे मालकोटी नाम के ग्राम में एक निष्ठावान अध्यापक श्री भूपाल सिंह बर्त्वाल के घर पर जिस बालक का जन्म हुआ था कदाचित उसके संबंध में यह कभी नहीं सोचा गया था कि सन् 2011 में अपनी मृत्यु के 64 वर्ष बाद (इनकी मृत्यु 14 सितम्बर 1947 को हुयी) उत्तराखंड की दस शीर्ष विभूतियों में उसकी गणना की जायेगी। हाल ही में ‘तहलका’ पत्रिका द्वारा उत्तराखंड की दस शीर्षस्थ विभूतियों में पहाड के इस कालिदास को चुना गया है। (तहलका फरवरी 2011)

इनकी कविताओं के सम्बन्ध में तेा बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अनेक शोध हो चुके हैं परन्तु उनकी गद्य रचनाओ के सम्बन्ध में अब तक कम ही लिखा गया है। कविवर चन्द्र कुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान के सर्व श्री डॉ0 योगंबर सिंह बर्त्वाल ‘तुंगनाथी’ द्वारा तहलका के लेख में कविवर की डायरी के एक अंश केा उदधृत करते हुये कहा गया है कि कविवर चंद्र कुंवर बर्त्वाल की डायरी में एक स्थान पर लिखा हैः-

मेरा ध्येय हिंदी की सेवा करना होगा। मेरा आजन्म प्रयास होगा कि हिंदी को कोई नयी चीज भेंट करूं जो मेरे ही घर की बनी हो, विलायत जापान से बनकर नहीं आयी हो। डायरी के पृष्ठ पर अंकित तिथि 6 मार्च, 1938

चन्द्रकुंवर बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। हिन्दी साहिन्य के भण्डार की समृद्वि और हिन्दी काव्य जगत मंे उनका योगदान विशेष उल्लेखनीय है। हिमालय का सौंदर्य और उसके विविध चित्र उनके काव्य में यत्र तत्र अनायास ही बिखरे मिल जाते है। वे मूलतः कवि थे। इसलिये गीत और कवितायंे उन्होने मुख्य रूप से लिखी हैं। अव तक उपलब्ध और अन्वेषित रचनाओं के आधार पर कह जा सकता है कि उन्होने लगभग आठ सैा से अधिक गीत ओर कवितायें लिखी । इसके अतिरिक्त करीब 25 से अधिक गद्य रचनायें की , जिनमें कहानी, एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनाऐं प्रमुख हैं।

महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की धनिष्ठता थी। उत्तराखण्ड भारती त्रैमासिक जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 में यह अंकित है कि वे निराला जी के साथ तो 1939 से 1942 तक अपना सधर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था । दिसम्बर 1941 में जब श्री बर्त्वाल पहाडों की ओर वापिस लौट आये थे तो उन्होंने महाप्राण निरला को कविता में लिखकर एक पत्र प्रेषित किया था जो गढवाल विश्वविद्यालय में डा0 हर्षमणि भट्ट के द्वारा निष्पादित शोध प्रबंध में उद्धृत हुआ है। यह पूर्णतः कविता मय पत्र मृत्यंुजय इस प्रकार हैः-

हे महाप्राण ’मृृत्यंुजय’, (चन्द्रकुंवर द्वारा कविता के रूप में पत्र लिखा गया था)

सहो अमर कवि! सहो अत्याचार सहो जीवन के, सहो धरा के कंटक, निष्ठुर वज्र गगन के। कुपित देवता हैं तुम पर हे कवि! गा गा कर क्योंकि अमर करते तुम दुख सुख मर्त्य भुवन के, कुपित दास हैं तुम पर, क्योंकि न तुमने अपना शीश झुकाया, तुम ने राग मुक्ति का गाया, छंदों और प्रथाओं के निर्मल बंधन में थ्कसी भांति भी बंध न सकी ऊंचे शैलों से गरज गरज आती हुई तुम्हारे निर्मल और स्वच्छ गीतों की वज्र हास सी काया। निर्धनता को सहो, तुम्हारी यह निर्धनता एक मात्र निधि , होगी, कभी देश जीवन की। अश्रु बहाओ, दिपी तुम्हारे अश्रु कणों में, एक अमर वह शक्ति न जिस को मंद करेगी, म्लिन पतन से भरी रात सुनसान, मरण की। टंजलियां भर भर सहर्ष पीओ जीवन का तीक्ष्ण हलाहल, और न भली सुधा सात्विकी, पीने में विष सी लगती हैं, किन्तु पान कर मृत्युंजय कर देती है मानव जीवन को। आपका परमस्नेही चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

महाप्राण निराला तत्समय बिहार की यात्रा पर गये थे इसलिये उन्हें यह पत्र अपनी बिहार यात्रा से लौटने के बाद प्राप्त हुआ जिसके बाद उन्होंने हिमवंत के कवि को जो उत्तर भेजा उसे यहां उदृधृत किया जा रहा है यह पत्र भी गढवाल विश्वविद्यालय में डा0 हर्षमणि भट्ट के निष्पादित शोध प्रबंध में उद्धृत हुआ है।

भूसा मंडी, हाथीखाना, लखनऊ,

दिनांक 30- 03- 42

प्रिय श्री चन्द्रकुंवर जी,

मैं बिहार गया था , अस्वस्थ लौटा। आपके प्रिय पत्र का समय पर उत्तर नहीं जा सका। मेरे लिये चिन्ता न करें । मैं इसी तरह मजे में रहता हूं। आप जल्द स्वस्थ हो जायं यह हमारे स्वास्थ्य का मुख्य कारण होगा। अपने समाचार अवश्य दें। आर्थिक अधिक असुविधा हो तो सूचित करने से संकोच न करें। मेरी दो पुस्तिकाऐं छप रही हैं निकल जाने पर आपके पास भेजूंगा। आप की आकांक्षांये अवश्य पूरी होगीं चित्त शान्ति रखें। मेरे सौकर्य का आप के साथ पूरा सहयोग है। यहां इस समय अन्न की मंहगी बढी है। समय अच्छा है। आकाश साफ रहता है, सर्दी गर्मी दुखदायक नहीं , लिखने पढने के अनुकूल है। कागज कलम वाला व्यवसाय बहुत मन्द हैं लोग एक भयानक परिवर्तन की ओर जैसे त्रास से देख रहे हों।आशा है आपके समाचार जल्द मिलेंगे।

सस्नेह

सूर्यकांत त्रिपाठी‘निराला’

लखनऊ से पहाड़ लौटने के पश्चात कविवर अपने मित्र पं0 शंभूप्रसाद बहुगुणा को भी लगातर पत्र लिखा करते थे। आठ सितम्बर 1942 ई0 को लिखे ऐसे ही एक पत्र में कवि ने कविता के संबंध में अपनी मान्यता का खुलासा किया है जिसका कुछ अंश यहां उदृधृत हैः-

दिनांक 08- 09- 42

प्रिय श्री ..... जी,

कविता यदि मुझे भुला न दे तो मैं कुछ भी खोया हुआ नहीं मानूंगा और मुझे तनिक भी दुख नहीं होगा। हृदय की उसी एकान्त इच्छा को पूरी तरह से पाने के लिये मैं जानबूझ कर कठिन दुख के रास्ते पर चल रहा हूं। हो सकता है कि अकाल मृत्यु मेरी कामनाओं को कुचल दे, हो सकता है कि जब सिद्धि मुझे मिले तब उसे उपभोग करने की सामर्थ्य मेरे शरीर में न हो, फिर भी मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि जीवन के प्रभात काल में जिस देवी के चरणों पर मैने अपना सिर रखा था, उसकी मैने सदा पूजा की, उसको मैने सदा प्यार किया...........किशोरावस्था में तुमने उस मंदिर तक जाने में मदद दी, जहां आंखों में आंसू भर कर वह देवकन्या रहती थी। इस बात को न तो मैं भूला हूं और न ही कभी भूल सकूंगा। (यह पत्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित ‘मेघ नंदिनी’ के पृष्ठ 101 से साभार उदृधृत किया गया है)

लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पांच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को ही मुखर किया।

साहित्यकार मंगलेश डबराल उनके संबंध में लिखते हैः-

‘‘ कई साल पहले पडी चंद्र कुंवर बर्त्वाल की दो पंक्तियां- ‘अपने उद्गम को लौट रही, जीवन की नदियां मेरी’ आज भी मुझे विचलित कर देती हैं।’’