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चलते-चलते शाम हो गयी / विमल राजस्थानी

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बुझा-बुझा मन, थका-थका तन
चलते-चलते शाम हो गयी
मिल न मंजिल, क्षितिज न दीखा
सारी उमर तमाम हो गयी

क्षण भर टोका हर घुमाव ने
पलभर रोका हर पड़ाव ने
लेकिन रूकने दिया न मुझको-
गति के अनचाहे बहाव ने
बड़े जोर की प्यास लगी थी, हर पनघट पर आस लगी थी
दो बूँदों के लिए मचल कर प्यास व्यर्थ बदनाम हो गयी
चलते-चलते शाम हो गयी

डेग-डेग पर शूल बिछे थे
चिथड़े बने दुकूल बिछे थे
जगह-जगह गहरी नदिया पर-
बनकर सेतु, बबूल बिछे थे

काँटों ने तन को दुलराया, लहूलुहान हो गयी काया
मन ने नैसर्गिक सुख पाया, आकृति खिली, ललाम हो गयी
 चलते-चलते शाम हो गयी

अपने पद-चिह्नों पर मैंने
मोती की लडि़याँ बिखेर दीं
काँटों में भी जगह बनाकर
अमर, मुखर छवियाँ उकेर दीं

जब तक जीवित धरा रहेगी, छवियाँ मेरी कथा कहेंगी
पीड़ा चारों धाम हुई, यह दुखती देह प्रणाम हो गयी
चलते-चलते शाम हो गयी