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चलना ही उचित है / मोहनजीत

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(2) चलना ही बनता है

आ जाओ ! बैठो !
पर दो पल रुको
कि अभी पवन से गुफ़्तगू में हूँ
सुबह से,संध्या से और चुप पसरी रात से
और उस सबसे जो नज़र के सामने है
और नज़र से परे भी

सोचता हूँ- फूल और खुशबू में क्या सांझ है !
मन और काल का क्या रिश्ता है !
प्यार हर जगह एक-सा है !
दोस्ती का दर्द क्यों डसता है !

तो क्या यों ही बैठा रहूँ
पहाड़ की तरह
प्रतीक्षा की तरह
या फिर चल पड़ूँ
पानी के बहाव की तरह
वक्त की सांस की तरह

मूल का क्या पता- कहाँ है
और अंत है कहाँ

अगर राह से वास्ता है
तो चलना ही उचित है।