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चले बन धेनु चारन कान्ह / सूरदास

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राग नट

चले बन धेनु चारन कान्ह ।
गोप-बालक कछु सयाने, नंद के सुत नान्ह ॥
हरष सौं जसुमति पठाए, स्याम-मन आनंद ।
गाइ गो-सुत गोप बालक, मध्य श्रीनँद-नंद ॥
सखा हरि कौं यह सिखावत, छाँड़ि जिनि कहुँ जाहु ।
सघन बृंदाबन अगम अति, जाइ कहुँ न भुलाहु ॥
सूर के प्रभु हँसत मन मैं, सुनत हीं यह बात ।
मैं कहूँ नहिं संग छाँड़ौं, बनहि बहुत डरात ॥

भावार्थ :-- कन्हाई वन में गायें चराने जा रहे हैं । गोपबालक कुछ बड़े हैं, नन्दनन्दन सबसे छोटे हैं । यशोदा जी ने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक भेज दिया, इससे कन्हाई का चित्त प्रसन्न है । गाय, बछड़े और गोपबालकों के बीच में श्रीनन्दनन्दन हैं । सखा श्यामसुन्दर को यही सिखला रहे हैं कि `हम लोगों को छोड़कर कहीं जाना मत; क्योंकि वृन्दावन खूब घना और अत्यन्त अगम्य है, (अन्यत्र) कहीं जाकर (मार्ग) न भूल जाना' सूरदास के स्वामी यह बात सुनकर मन-ही-मन हँस रहे हैं (कहते हैं-`मैं कहीं तुम्हारा साथ नहीं छोड़ूँगा, वन से मैं बहुत डरता हूँ ।'