"चारु चंद्र की चंचल किरणें / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर
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− | + | चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में, | |
− | खेल | + | :स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में। |
− | स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है | + | पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से, |
− | अवनि और | + | :मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥ |
− | + | पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना, | |
− | : | + | :जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना, |
− | + | जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है? | |
− | : | + | :भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥ |
− | + | किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये, | |
− | है क्या | + | :राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये। |
− | है | + | बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है, |
− | + | :जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है! | |
− | + | मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है, | |
− | + | :तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है। | |
− | : | + | वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी, |
− | : | + | :विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥ |
− | + | कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता; | |
− | + | :आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता। | |
− | + | बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी, | |
− | + | :मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई- | |
− | : | + | क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा; |
− | :संध्या को दे जाता है, | + | :है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा? |
− | :शून्य | + | बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप, |
− | + | :पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप! | |
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+ | है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर, | ||
+ | :रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर। | ||
+ | और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है, | ||
+ | :शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है। | ||
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+ | सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है, | ||
+ | :अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है! | ||
+ | अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है, | ||
+ | :पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥ | ||
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+ | :वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात। | ||
+ | अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की। | ||
+ | :किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की! | ||
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+ | :व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे। | ||
+ | कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक; | ||
+ | :पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक! | ||
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18:34, 10 फ़रवरी 2010 का अवतरण
चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!
मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंधवह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥
तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!
और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!