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चारो ओर अन्हरिया / गोपालजी ‘स्वर्णकिरण’

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भाषा, भोजन, भुजा कि भाषण के सवाल के खोंप,
कइसे मानीं ई सब ह खट्टा अंगूर के झोंप
आलस के केंचुल, माथा पर छतराइल अभिशाप
भोथराइल जे बान का करी चढ़िए के ऊ चाप
फूट गइल ई आँख बिछाईं कब तक इनका के हमः
असगुन, आशा, सगुन कि कइसे होखे मनवाँ पेहम ?
चारो ओर अँधेरा, कहवाँ तनिको कहीं अँजोर ?
माया, दया, त्याग, करुणा ना, खुदगर्जी के जोर।