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चीटियाँ / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना

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वे जब तक संतुष्ट रहीं
मरे पड़े कीड़े-मकोड़े खाकर
हम इठलाते रहे अपनी बुद्धि पर
धीरे - धीरे उनकी नज़रें ललचाईं
वे बढ़ने लगीं चीनी के दानों
और स्वादिष्ट मिष्ठान्नों की ओर
यह गुस्ताखी हम सहन न कर पाए
क्योंकि हमारी धमनियों में
बड़ी तेज रफ़्तार से दौड़ रहा था
चटकदार सामंती लहू
हमने काट डाली कुछ की ज़बानें
कुछ के सूक्ष्म पाँव
और कई को ज़िंदा जला डाला
बाक़ी इस तरह डरीं–सहमीं
कि सदियों तक बेज़बान रहीं

पर आजकल तो ग़जब हो रहा है
उन्हें भी मिलने लगी हैं
हम जैसे स्थापित मानवों जैसी बुद्धि
उन पर साक्षरता कार्यक्रम
शायद असर कर गए हैं
इसलिए हो रही हैं राजनीति में भी माहिर
उनकी कतारबद्ध सेना बना रही है
चक्रव्यूह हर ओर
रसोई के डिब्बों में
खाने की मेज पर
हमारी आलीशान दीवारों पर
बिस्तर के सिरहाने
यहाँ तक कि हमारे कपड़ों पर भी

सुना है हिसाब लेने आ रही हैं
अब तक हमारे पैरों तले रौंदे गए
अपने अनगिनत साथियों का
वे भूल रही हैं हमारा गुलीवरपन
और यह भी कि –
हमारे हाथ आजीवन लंबे रहे हैं
कानून के लंबे हाथों से भी
हम अट्टहास कर रहे हैं
अगले ही पल हमारी गुलीवरी उंगलियाँ
मसल दे रही हैं उन्हें पहले की तरह
उनकी सेना हताश हो
तितर-बितर कर भाग रही है
हम बहुत प्रसन्न हो रहे हैं
यह देखकर कि
हमारी नाक उतनी ही ऊँची है अब भी
जितनी दीवार पर लगी
तैलचित्रों में हमारे पूर्वजों की

परंतु सावधान!
गुलीवर हमेशा विशालतम नहीं होता
और चीटियाँ हमेशा पिद्दियाँ नहीं
उनकी धमनियों का लहू भी
अब रफ़्तार पकड़ने लगा है
इसलिए चलने लगी हैं सिर उठाकर
नहीं जाने देंगी अब और
अपने हिस्से की मिठाइयाँ
करेंगी हमला मदमस्त हाथियों पर
हम कर भी नहीं पाएँगे
अपने किए पर
थोड़ा-सा पश्चाताप!