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मरे मेरे मज़ाके़-शौक़ का इसमें भरा है रंग।
मैं खुद को देखता हूँ, कि तस्वीरे-यार को॥
 
 
 
खिलते ही बाग में पज़मुर्दा<ref>कुम्हलाने लगे</ref> हो चले।
 
जुम्बिश रंगे-बहार में मौजे-फ़ना की है॥
 
 
 
बुलबुलो-गुल में जो गुज़री हमको उससे क्या गरज़।
 
हम तो गुलशन में फ़क़त, रंगेचमन देखा किए॥
 
 
जानते हैं वो अदायें इस दिले-बेताब की।
 
उनसे बढ़कर कौन होगा, नुक्तादाने-इज़्तराब<ref>बेचैनी को समझनेवाला</ref>॥
 
 
नासेह मुश्फ़िक़!<ref>हितैशी उपदेशक</ref> मगर यूँ ही तड़पने दे मुझे।
 
मुझ को भी मालूम है, सूदो-ज़ियाने-इज़्तराब<ref>बेचैनी का हानी-लाभ</ref>॥
 
 
 
 
 
 
 
 
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