भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुपचाप / राकेश रेणु

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:14, 28 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रेणु |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बून्दें गिर रही हैं बादल से
एकरस, धीरे-धीरे, चुपचाप ।

पत्ते झरते हैं भीगी टहनियों से
पीले-गीले-अनचाहे, चुपचाप ।

रात झर रही है पृथ्वी पर
रुआँसी, बादलों, पियराए पत्तों सी, चुपचाप ।

अव्यक्त दुख से भरी
अश्रुपूरित नेत्रों से
विदा लेती है प्रेयसी, चुपचाप ।

पीड़ित हृदय, भारी क़दमों से
लौटता है पथिक, चुपचाप ।

उम्मीद और सपनों भरा जीवन
इस तरह घटित होता है, चुपचाप ।