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चोर / स्वप्निल श्रीवास्तव

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एक दिन मैं तुम्हें
चुराना चाहता हूँ
लेकिन रखूँगा कहाँ ?

तुम अपनी ख़ुशबू से
जाहिर हो जाओगी
 
मैं तुम्हें उस तरह चुराना
चाहता हूँ, जैसे बगीचे से
फूल चुराए जाते हैं

मैं यह भी जानता हूँ कि
सुन्दरताएँ चुराई नहीं जातीं
उन्हें आँख भरकर
देखा जाता है

थोड़ा सा पाप है मेरे भीतर
कि तुम्हें थोड़ा-सा चुराकर देखूँ
और मुझे चोर होने का अनुभव
मिल सके
भले ही, उसके लिए जेल
जाना पड़े

मैं कोई पेशेवर चोर नही
बल्कि नौसिखुआ हूँ
मैं तुम्हारी छवि चुराकर
आईने में रख देना चाहता हूँ
ताकि मैं तुम्हे रोज़ देख सकूँ