भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चौपदियाँ / मुनव्वर राना

Kavita Kosh से
Lina niaj (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 13:25, 29 जुलाई 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुनव्वर राना |संग्रह= }} कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नही...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते

हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते ।

मुहाजरीन से अच्छे तो ये परिन्दे हैं

शिकार होते हैं लेकिन कहीं नहीं जाते ।।


उम्र एक तल्ख़ हक़ीकत है मुनव्वर फिर भी

जितना तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता ।

सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता,

हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता ।।


मियाँ ! मैं शेर हूँ, शेरों की गुर्राहट नहीं जाती,

मैं लहज़ा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती ।

किसी दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था,

मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़वाहट नहीं जाती ।।


मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो ,

इसी शहर में एक पुरानी सी इमारत और है ।


हम ईंट-ईंट को दौलत से लाल कर देते,

अगर ज़मीर की चिड़िया हलाल कर देते ।


हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है

कभी गाड़ी पलटती है, कभी तिरपाल कटता है ।

दिखाते हैं पड़ौसी मुल्क़ आँखें, तो दिखाने दो

कभी बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है ।।