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चौपाल

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सादर
अनिल जनविजय
 
==इस तकलीफ में कोई बोलता क्यों नहीं!==
 
''कम से कम साहित्य तथा प्रकाशन क्षेत्र में कार्य करने बाले लोगों में, संकीर्ण विचारधारा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए ! मुझे आश्चर्य है कि जब प्रतिष्ठित विद्वान् भी असंयत भाषा का उपयोग करने लगते हैं ! यह कौन सी विद्वता है और हम क्या दे रहे हैं, अपने पढने वालों को ? अगर हम सब मिलकर अपनी रचनाओं में १० % स्थान भी अगर, सर्व धर्म सद्भाव पर लिखें , तो इस देश में हमारे मुस्लिम भाई कभी अपने आपको हमसे कटा हुआ महसूस नहीं करेंगे, और हमारी पढ़ी लिखी भावी पीढी शायद हमारी इन मूर्खताओं को माफ़ कर सके !''
 
''दोनों भाइयों ने इस मिटटी में जन्म लिया, और इस देश पर दोनों का बराबर हक है ! हमें असद जैदी और इमरान सरीखे भारत पुत्रो के अपमान पर शर्मिन्दा होना चाहिए !''
 
''कवि और लेखक स्वाभाविक तौर पर भावुक और ईमानदार होते हैं , विस्तृत ह्रदय लेकर ये लोग समाज में जब अपनी बात कहने जाते हैं तो वातावरण छंदमय हो उठता है , कबीर की बिरादरी के लोग हैं हमलोग, न किसी से मांगते हैं न अपनी बात मनवाने पर ही जोर देते हैं, नफरत और संकीर्ण विचार धारा से इनका दूर दूर तक कोई रिश्ता नही हो सकता ! ऐसे लोगों पर जब प्रहार होता है तो कोई बचाने न आए यह बड़ी दर्दनाक स्थिति है ! न यह हिंदू हैं न मुसलमान , इन्हे सिर्फ़ कवि मानिये और इनके प्रति ग़लत शब्द वापस लें तो समाज उनका आभारी होगा ! एक कविता पर गौर करिए ....''
 
 
 
''बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़ ''
 
''हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता''
 
''वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशांतर में''
 
''वे बुद्धि के ढेर''
 
''इन्द्रियां झकाझक उनकीं''
 
''सर्दी-खांसी से परे''
 
''ट्रेन से कटकर नहीं मरते......''
 
 
 
''उपरोक्त कविता लिखी है अशोक पांडे जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार ने और इसे प्रकाशित किया है " '' [http://mohalla.blogspot.com/2008/07/blog-post_11.html क्‍या असद ज़ैदी सांप्रदायिक कवि हैं?]''" नाम के शीर्षक से [http://mohalla.blogspot.com/ मोहल्ला] में !''
 
 
 
''ताज्जुब है कि कोई पहाड़ नहीं टूटा , न तूफ़ान आया , कोई प्रतिक्रिया नही हुई , कहीं किसी को यह रचना अपमानित करने लायक नहीं लगी। और लोगों ने, सारी रचनाओं की, चाहे समझ में आईं या नहीं, तारीफ की, कि वाह क्या भाव हैं, और कारण ?''
 
 
 
''-कि अशोक पाण्डेय तथा चतुर्वेदी हमारे अपने हैं ! ''
 
''-लिखने से क्या होता है, हमारे धर्म में कट्टरता का कोई स्थान नहीं ! अतः कोई आहत नहीं हुआ ! इस कविता से सबको कला नज़र आई'' ''!''
 
 
 
'''''मजेदार बात यह है कि यह उपरोक्त कविता लोगों की प्रतिक्रिया जानने को ही लिखी गयी थी, कि आख़िर असद जैदी जैसे मशहूर साहित्यकार की लोगों ने यह छीछालेदर करने की कोशिश क्यों की ! और जवाब मिल भी गया !'''''
 
 
 
'''''एक ख़त मिला मुझे गुजरात से रजिया मिर्जा का उसे जस का तस् छाप रहो हूँ , बीच में से सिर्फ़ अपनी तारीफ़ के शब्दों को हटा दिया है ( मेरी तारीफ यहाँ छापना आवश्यक नही है ) जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ ...'''''
 
 
नमस्ते सतिश जी, आपका पत्र पढा। पढकर हैरान नहीं हुं क्यों कि मै ऐसे लोगों को साहित्यकार मानती ही नहिं हुं जो लोग धर्मो को, ईंसानों को बाटते चलें। मै तो ---------------------------------------------------------------------------------------------------आपकी पहेचान है। उन लोगों को मैं' साहित्यकार' नहिं परंतु एसे विवेचकओं की सुचिमें रखुंगी जो अपनी दाल-रोटी निकालने के लिये अपने आपको बाज़ार में बिकने वाली एक वस्तु बना देते है। मैं अस्पताल में काम करती हुं । मेरा फ़र्ज़ है कि मै सभी दीन-दुख़ियों का एक समान ईलाज़ करुं, पर यदि मैं अपने कर्तव्य को भूल जाऊं तो इसमें दोष किसका? शायद मेरे "संस्कार" का ! हॉ, सतिष जी अपने संस्कार भी कुछ मायने रखते है। हमको हमारे माता-पिता, समाज, धर्म, इमान ने यही संस्कार दीये है कि ईंसान को ईंसानों से जोडो, ना कि तोडो।सतिष जी आपकी बडी आभारी हुं जो आपने एसा प्रश्न उठाया। मैं एक अपनी कविता उन मेरे भाइ-बहनों को समर्पित करती हुं जो अपने 'साहित्य' का धर्म नीभा रहे है। सतिशजी आपसे आग्रह है मेरी इस कविता को अपने कमेन्ट में प्रसारित करें। आभार
 
 
 
''दाता तेरे हज़ारों है नाम...''
 
''कोइ पुकारे तुज़े कहेकर रहिम,''
 
''और कोइ कहे तुज़े राम।...''
 
''दाता..........''
 
''क़ुदरत पर है तेरा बसेरा,''
 
''सारे जग पर तेरा पहेरा,''
 
''तेरा 'राज़'बड़ा ही गहेरा,''
 
''तेरे ईशारे होता सवेरा,''
 
''तेरे ईशारे हिती शाम।...''
 
''दाता......''
 
''ऑंधी में तुं दीप जलाये,''
 
''पथ्थर से पानी तुं बहाये,''
 
''बिन देखे को राह दिख़ाये,''
 
''विष को भी अमृत तु बनाये,''
 
''तेरी कृपा हो घनश्याम।...''
 
''दाता.........''
 
''क़ुदरत के हर-सु में बसा तु,''
 
''पत्तों में पौन्धों में बसा तु,''
 
''नदीया और सागर में बसा तु,''
 
''दीन-दु:ख़ी के घर में बसा तु,''
 
''फ़िर क्यों में ढुंढुं चारों धाम।...''
 
''दाता..........''
 
''ये धरती ये अंबर प्यारे,''
 
''चंदा-सुरज और ये तारे,''
 
''पतज़ड हो या चाहे बहारें,''
 
''दुनिया के सारे ये नज़ारे,''
 
''देख़ुं मैं ले के तेरा नाम।.........''
 
''दाता........''
 
 
 
''ऐसी कवितायें कबीर दास जी लिखते थे , मैं रजिया जी का हार्दिक शुक्रगुजार हूँ , यह कविता प्यार का एक ऐसा संदेश देती है जो कहीं देखने को नहीं मिलता ! यह गीत गवाह है की कवि की कोई जाति व् सम्प्रदाय नहीं होता ''
 
''वह तो निश्छलता का एक दरिया है जो जब तक जीवन है शीतलता ही देगा !रजिया मिर्जा की ही कुछ पंक्तियाँ और दे रहा हूँ !''
 
 
 
''"झे मालोज़र की ज़रुर क्या?''
 
''मुझे तख़्तो-ताज न चाहिये !''
 
''जो जगह पे मुज़को सुक़ुं मिले,''
 
''मुझे वो जहाँ की तलाश है।''
 
''जो अमन का हो, जो हो चैन का।''
 
''जहॉ राग_द्वेष,द्रुणा न हो।''
 
''पैगाम दे हमें प्यार का ।''
 
''वही कारवॉ की तलाश है।"''
 
 
 
''मुझे बेहद अफ़सोस है कि इस विषय पर बहुत कम लोग बोलने के लिए तैयार है , मैं मुस्लिम भाइयों की मजबूरी समझता हूँ, भुक्ति भोगी होने के कारण उनका न बोलना या कम बोलना जायज है परन्तु, सैकड़ों पढ़े लिखे उन हिंदू दोस्तों के बारे में आप क्या कहेंगे जो अपने मुस्लिम दोस्तों के घर आते जाते हैं और कलम हाथ में लेकर अपने को साहित्यकार भी कहते हैं''''!''
 
''आज कबाड़ खाना पर असद जैदी के बारे में तथाकथित कुछ हिंदू साहित्यकारों की बातें सुनी, शर्मिंदगी होती है ऐसी सोच पर ! मेरी अपील है उन खुले दिल के लोगों से , कि बाहर आयें और इमानदारी से लिखे जिससे कोई हमारे इस ख़ूबसूरत घर में गन्दगी न फ़ेंक सके !''
 
Posted by सतीश सक्सेना
satish1954@gmail.com;
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