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छींक / महेश वर्मा

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छींक एक मजेदार घटना है अपने आंतरिक विन्यास में और बाहरी शिल्प में । अगर एक व्यक्ति के रूप में आप इसे देखना चाहें तो इसका यह गौरवशाली इतिहास ज़रूर जान जाएँगे कि इसे नहीं रोका जा सकता इतिहास के सबसे सनकी सम्राट के भी सामने । "नाखूनों के समान यह हमारे आदिम स्वभाव का अवशेष रह गया है हमारे भीतर" - यह कहकर गर्व से चारों ओर देखते आचार्य की नाक में शुरू हो सकती है इसकी सुरसुरी ।

सभ्य आचरण की कितनी तहें फोड़कर यह बाहर आया है भूगर्भ जल की तरह -- यह है इसकी स्वतन्त्रता की इच्छा का उद्घोष। धूल ज़ुकाम और एलर्जी तो बस बहाने हैं हमारे गढे हुए । रुमाल से और हाथ से हम जीवाणु नहीं रोकते अपने जंगली होने की शर्म छुपाते है ।

कभी दबाते है इसकी दबंग आवाज़
कभी ढकना चाहते अपना आनंद ।