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जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल / सूरदास

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रागिनी श्रीहठी

जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल ।
दधिहिं बिलोइ सदमाखन राख्यौ, मिश्री सानि चटावै नँदलाल ॥
कंचन-खंभ, मयारि, मरुवा-डाड़ी, खचि हीरा बिच लाल-प्रवाल ।
रेसम बनाइ नव रतन पालनौ, लटकन बहुत पिरोजा-लाल ॥
मोतिनि झालरि नाना भाँति खिलौना, रचे बिस्वकर्मा सुतहार ।
देखि-देखि किलकत दँतियाँ द्वै राजत क्रीड़त बिबिध बिहार ॥
कठुला कंठ बज्र केहरि-नख, मसि-बिंदुका सु मृग-मद भाल ।
देखत देत मुनि कौतूहल फूले, झूलत देखत नंद कुमार ।
हरषत सूर सुमन बरषत नभ, धुनि छाई है जै-जैकार ॥

भावार्थ :--`माता बलिहारी जाती है, गोपाललाल पलने झूलो!'(इस प्रकार पलनेमें झुलकर) दही मथकरतुरंत का निकला मक्खन लेकर उसमें मिश्री मिलाकर नन्दलालको चटाती है । (पलनेमें) सोनेके खम्भे लगे हैं, सोनेकी ही धरन, (ऊपरका मुख्य डंडा) और सोनेके ही मरुवाडंडे(धरन और झूलेके बीचके छोटे डंडे )लगे हैं, उनमें हीरे जड़े हैं, बीच-बीचमें लाल (माणिक्य) और मूँगे लगे हैं, पलना नवरत्नोंसे सजा है, बहुत-से पिरोजा और लाल झालरोंमें लटक रहे हैं, रेशमकी रस्सी लगी है, मोतियोंकी झालरें लटक रही हैं, अनेक प्रकारके खिलौने उसमें बने हैं, स्वयं विश्वकर्मा बढ़ईका रूप रखकर बनाये हैं (पलनेको) देख-देखकर श्याम किलकता है । (उस समय) उसकी दोनों दँतुलियाँ बड़ी शोभा देती हैं ।अनेक प्रकारसे वह क्रीड़ा कर रहा है । गले में कठुला, हीरे और बघनखा (बाल-आभूषण)हैं, ललाटपर कस्तूरीका सुन्दर तिलक और (नजरन लगनेके लिये) कज्जलका बिन्दु लगाहै । सभी (व्रजके) नर-नारी देखकर आशीर्वाद देते हैं - `यशोदाजी! तुम्हारा लाल चिरजीवी हो !' सूरदासजी कहते हैं कि श्रीनन्दनन्दनको (पलनेमें) झूलते देखकर देवता, मनुष्यतथा मुनिगण आनन्द से उत्फुल्ल हो रहे हैं, देवता हर्षित होकर आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा करते हैं । उनके जय-जयकारके शब्दसे पूरा आकाश भर गया है ।