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जन्मकथा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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” बच्चे ने पूछा माँ से , मैं कहाँ से आया माँ ? “

माँ ने कहा, ” तुम मेरे जीवन के हर पल के संगी साथी हो !”

जब मैं स्वयं शिशु थी, खेलती थी गुडिया के संग , तब भी,

और जब शिवजी की पूजा किया करती थी तब भी,

आंसू और मुस्कान के बीच बालक को ,

कसकर, छाती से लिपटाए हुए , माँ ने कहा ,

” जब मैंने देवता पूजे, उस वेदिका पर तुम्ही आसीन थे ,

मेरे प्रेम , इच्छा और आशाओं में भी तुम्ही तो थे !

और नानी माँ और अम्मा की भावनाओं में भी, तुम्ही थे !

ना जाने कितने समय से तुम छिपे रहे !

हमारी कुलदेवी की पवित्र मूर्ति में ,

हमारे पुरखो की पुरानी हवेली मेँ तुम छिपे रहे !

जब मेरा यौवन पूर्ण पुष्प सा खिल उठा था,

तुम उसकी मदहोश करनेवाली मधु गँध थे !

मेरे हर अंग प्रत्यंग में तुम बसे हुए थे

तुम्ही में हरेक देवता बिराजे हुए थे

तुम, सर्वथा नवीन व प्राचीन हो !

उगते रवि की उम्र है तुम्हारी भी,

आनंद के महासिंधु की लहर पे सवार,

ब्रह्माण्ड के चिरंतन स्वप्न से ,

तुम अवतरित होकर आए थे।

अनिमेष द्रष्टि से देखकर भी

एक अद्भुत रहस्य रहे तुम !

जो मेरे होकर भी समस्त के हो,

एक आलिंगन में बध्ध , सम्बन्ध ,

मेरे अपने शिशु , आए इस जग में,

इसी कारण मैं , व्यग्र हो, रो पड़ती हूँ,

जब, तुम मुझ से, दूर हो जाते हो…

कि कहीँ, जो समष्टि का है

उसे खो ना दूँ कहीँ !

कैसे सहेज बाँध रखूँ उसे ?

किस तिलिस्मी धागे से ?

हिन्दी अनुवाद : – लावण्या दीपक शाह