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जब तुम हँसती हो / अज्ञेय

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 जब तुम हँसती हो, तब तुम मेरे लिए अत्यन्त जघन्य हो जाती हो। तब तुम मेरी समवर्तिनी नहीं, किन्तु एक तुच्छ वस्तु रह जाती हो- एक ओछा, खोखला खिलौना, एक सुन्दर, सुरूप, पर नि:सत्त्व क्षार-पुंज मात्र!
जब तुम उद्विग्न, दु:खी, तिरस्कृत और दयनीय होती हो, तभी मैं तुम्हें अत्यन्त प्रियतमा देख पाता हूँ। तभी तुम पर मेरा अत्यन्त ममत्व होता है।
सम्भवत: यह प्रेम नहीं है- सम्भवत: यह केवल एक सामथ्र्यपूर्ण दया-भाव मात्र है। पर यह भाव है जो कि तुम्हें मुझ से सम्मिलित किये हुए है...

दिल्ली, 2 मार्च, 1933