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वह निहायत मनहूस दिन का
बेहद वाहियात लमहा था,गुमसुमाता फिंजा --
सहमा-सहमा था
मेरे सनातनी घर में क्या नहीं था--
दीवारों पर टंगी तस्वीरें थीं , परतदार जालों पर आरूढ़ मकड़े थे,गन्हाते तोशक-तकियों में बेशुमार घुन, दीमक, मकोड़े थे ,
खटमली खाट-खमचे थे
जीवाश्म-सरीखे भाई-बहन थे
जिनके जिस्म का हर हिस्सा साबूत था,
हाथ, पैर और मुंह थे
ओठ थे-- दरकते हुए
तभी, बिजली गुल हो गई
और टी.वी. की हड़कंप
सन्नाटे में जब्त हो गई ,
जिससे मैं कईगुना अवाक रह गया,
मेरे सहोदरों का अन्त:क्रन्दन
नहीं बहक पा रहे थे,
बिजली के आने तक
घड़ी के की टिक-टिक सूइयों से
नहीं बहल पा रहे थे
 
जबकि समय वहां पालथी मार
बैठा हुआ था,
रोशनी अंधेरे कोनों से
लड़-मर रही थी
 
इसी बीच मेरी ओर ध्यान दिया गया
मेरी लगातार चींख से आजिज़ आकर
मेरी ठिंगनी दीदी आई थी
कटोरी-भर पानी लेकर,
पर, उफ्फ़!
उससे ताजे मूत की बू आ रही थी
सो, मैने उसे मार गिराया
 
मैने जानकर वह आफत मोल लिया था
मेरा वह कृतघ्न कृत्य
कुहराम का सबब बना,
जो सहोदर पानी को तड़प रहे थे
वे मुझे जान से मार्ने को जूझ रहे थे
लेकिन, दीदी दीवार बन
चिचियाती जा रही थी--
'अरे, हरामजादों!
दुध-मुंहे की जान ही ले लोगे क्या?
ठहरो, अभी अम्मा को पानी लाने दो
अम्मा पानी कमाने गई है'
 
तब, वे उस बोतल-भर पानी में
अपना-अपना हिस्सा लगा रहे थे
जबकि दीदी धमकाती जा रही थी
आज पानी पर सिर्फ मुन्ने का हक होगा
आज पानी पर सिर्फ मुन्ने का हक होगा.