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जब हाथी नहाता है / के० सच्चिदानंदन

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जब हाथी नहाता है
हम देखते हैं सिर्फ
एक घना अँधेरा पर्दा छाते की तरह और
एक उतुंग सूंड पाइप की तरह

अब मछलियाँ नाचने लगती हैं चारों ओर
उसके पैरों के, घासें
उसकी नाम देह को गुदगुदाती हैं
जंगल अपने शेरों, भेड़ियों
और पक्षियों के साथ अपनी तंग आँखों को तृप्त कर लेता है
उसके पृष्ट पर लगी हुई धूल
तांबें में सने सोने की तरह चमकती है
कीचड़प्लावित तालाब लहराने लगता है
एक जंगली सोते की तरह

जब हाथी नहाता है
हमारे त्योहार
व्याकुल कर देने की हद तक
तुच्छ दिखाई देते हैं...साजोसामान
से प्रसन्न नहीं होता हाथी
आप उसे रोते देख सकते हैं
पर्वों की शोभायात्राओं में
हाथियों और मनुष्यों की नियति पर विलाप करते हुए

जब हाथी नहाता है
गर्मी उस सूँड में से होती हुई गम हो जाती है
और मानसून आ जाता है
वन्य चांदनी उन आखों में
समा जाती है
पानी गाता है हिंडोल
तालाब में उसके एक डबाक पर
समग्र जंगल की खुशबू
एक फूल में
लोगों को दीवाना कर देती है
प्यार बंदिशें तोड़ देता है खुद की
आज़ादी बिगुल बजाती है
और अक्षर उसकी सूंडों को उठा देते हैं ऊपर
वसंत के स्वागत में।

मूल मलयालम से स्वयं कवि द्वारा अंग्रेजी में अनूदित. अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद: व्योमेश शुक्ल