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जलयान पर / अनातोली परपरा

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रात है

दूर कहीं पर झलक रही है रोशनी

हवा की थरथराती हँसी मेरे साथ है

दाएँ-बाएँ-ऊपर-नीचे चारों ओर अंधेरा है

हाथ को सूझता न हाथ है

कितनी हसीन रात है


रात है

चांद-तारों विहीन आकाश है ऊपर

अदीप्त-आभाहीन गगन का माथ है

और मैं अकेला खड़ा हूँ डेक पर

नीचे भयानक लहरों का प्रबल आघात है

कितनी मायावी रात है


रात है

गहन इस निविड़ में मुझे कर रही विभासित

वल्लभा कांत-कामिनी स्मार्त है

माँ-पिता, मित्र-बन्धु मन में बसे

कुहिमा का झर रहा प्रपात है

यह अमावस्या की रात है