भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जलेगा दिया तो सँवर जाएगा / ज्ञान प्रकाश विवेक

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:39, 11 जनवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जलेगा दीया तो सँवर जाएगा
लुटा कर उजाले बिखर जाएगा

बयाँ क्या करूँ बुलबुले का सफ़र
हँसेगा ज़रा और मर जाएगा

है शीशा तो गल जाएगा आग में
है सोना तो तप कर निखर जाएगा

गुलेलें हैं हर शख़्स के हाथ में
कि बचकर परिन्दा किधर जाएगा

तेरे वारदातों के इस शहर में
मेरा गाँव आया तो डर जाएगा

परिन्दा, हवा, धूप या चाँदनी
कोई उस कुएँ में उतर जाएगा

समय का है रथ पारदर्शी बड़ा
पता न चलेगा गुज़र जाएगा

वो रस्ता है तो जाएगा दूर तक
है आँगन तो घर में ठहर जाएगा.