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"जहर को पीना ही नहीं, पचाना पड़ता है, / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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जहर को पीना ही नहीं, पचाना पड़ता है,
 
अपमान की ठोकरें खाकर भी मुस्कुराना पड़ता है,
 
तब कहीं चिड़ियाँ के घोंसले में एक दाना पड़ता है.
 
<poem>
 

02:25, 22 जुलाई 2011 के समय का अवतरण