भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जहाँ से शक्ल को तेरी तरस-तरस गुज़रे / मोमिन

Kavita Kosh से
विनय प्रजापति (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:19, 9 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोमिन |संग्रह= }} Category:ग़ज़ल <poem> जहाँ1 से शक्ल को ते...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जहाँ1 से शक्ल को तेरी तरस-तरस गुज़रे
जो मुझपे बस न चला, अपने जी से बस गुज़रे

बनी है सूरे-सराफ़ील2 आह बे-तासीर
कि मेरे सम पे क़यामत नफ़स-नफ़स3 गुज़रे

न जाऊँ क्योंकि सू-ए-दाम4 आशियाँ से जब
ख़याले-हसरते मुर्ग़ाने-हमक़फ़स5 गुज़रे

हो और को तो हिदायत, जोख़ुद हूँ आवारा
यह उम्र काश कि जूँ नाला-ए-जरस6 गुज़रे

कहाँ वह रब्ते-बुताँ7 अब कि उसको तो 'मोमिन'
हज़ार साल हुए सैकड़ों बरस गुज़रे

शब्दार्थ:
1. दुनिया, 2. हज़रत इसराफ़ील की तुरही, 3. साँस-साँस, 4. फ़ंदे की तड़प, 5. संग के बंदी पंक्षियों की इच्छाएँ, 6. घंटे का स्वर, 7. प्रेयसियों से मिलना