भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़माना जीत लेता है मगर घर हार जाता है / संदीप ‘सरस’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़माना जीत लेता है मगर घर हार जाता है।
स्वयं से ज़ंग लड़ता है वो अक़्सर हार जाता है।

इरादे ज़ुल्म सहकर और भी मज़बूत होते हैं,
मेरे सर से तेरे हाथों का पत्थर हार जाता है।

कफ़न को खोलकर देखा तो दोनों हाथ खाली थे,
समय के सामने बेबस सिकन्दर हार जाता है।

मुसाफिर ही चले हैं रास्ते चलते नहीं देखे,
नहीं जो कर्म का राही मुक़द्दर हार जाता है।

शराफ़त छोड़ कर लहरें बग़ावत पर उतर आएँ,
तो फिर अपने ही पानी से समन्दर हार जाता है।

बनाकर बाँह की तकिया, मैं गहरी नींद सोता हूँ
मेरे फुटपाथ से महलों का बिस्तर हार जाता है।

तेरा ऐश्वर्य तेरा है, मेरा अभिमान मेरा है,
मेरी गैरत के आगे तेरा तेवर हार जाता है।