भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़माने वालो / उदयप्रताप सिंह

Kavita Kosh से
Bharat wasi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:09, 17 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है । तुम्हारी घड…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है ।

तुम्हारी घड़ियाँ गलत हैं शायद, बजर सुबह का बजाने वालो ।


मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों

मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो ।


तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो

इधर मैं रखता हूँ इस कलम को समझते क्या हो खजाने वालो ।


न जाने कितने समुद्र मंथन का विष पिया है खुशी से हमने

हमारी बोली में जो असर है यूँ ही नहीं है ज़माने वालो ।


जहाँ में इन आंसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी

कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो ।


नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी

हमारी आँखों में जिंदगी है संभल के जलवा दिखाने वालो ।